________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
पदार्थ है। उस दृष्टि से देखें तो उसे जो नयी दशा प्रगट होती है, उसकी भी जिसके त्रिकाल द्रव्य की दृष्टि में अपेक्षा नहीं रहती। कहो, इसमें समझ में आता है या नहीं? मांगीरामजी! वह तो अनादि से अनन्त काल तक सर्व वस्तु को अपने मूल स्वभाव में दिखानेवाला द्रव्यार्थिकनय है। द्रव्य-वस्तु को देखने की दृष्टि से अनादि-अनन्त सत्... सत्... सत्... सत्... सत्... सत्... है... है... है... है... है... है... (जिसकी) आदि नहीं, अन्त नहीं, उत्पन्न नहीं, नाश नहीं। ऐसा जो आत्मपदार्थ ध्रुव सत्, है... है... है... ऐसा उसका ज्ञान-आनन्द है... है... है... पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... पूर्ण... है। आहा...हा... ! विमलचन्दजी!
इसने कभी आत्मा क्या है ? कैसा, क्यों है ? (वह नहीं देखा)। वह ऐसा कहता है कि अपने को कुछ पवित्रता प्रगट करनी है। ऐसा कहते हैं न? उसका अर्थ यह हुआ कि उसकी वर्तमान दशा में पवित्रता नहीं है यदि वर्तमानदशा-हालत में पवित्रता होवे तो पवित्रता प्रगट करनी है, यह नहीं रहता। तब इसका अर्थ यह हुआ कि उसकी दशा में-हालत में वर्तमान में तो अपवित्रता है। अब मुझे पवित्रता करनी है - ऐसा कहनेवाला पवित्रता लायेगा कहाँ से? जो अपवित्रता है, उसमें से पवित्रता आयेगी? अपवित्रता जाये, उसमें से पवित्रता आयेगी? अपवित्रता की दशा जाये और पवित्रता अन्दर में पड़ी है उसमें से आयेगी, भाव में से भाव आता है।
___ मुझे अपवित्रता मिटाना है और पवित्रता चाहिए; उसका सिद्धान्त यह हुआ कि उसकी दशा में अपवित्रता है, वह नष्ट हो सकती है और उसके स्थान में पवित्रता लायी जा सकती है परन्तु वह पवित्रता कहाँ से आयेगी? अपवित्रता की दशा गयी, उसमें से आयेगी? गयी उसमें से वह तो अभाव हो गया। अन्दर में जो भाव है, त्रिकालभाव पवित्रस्वरूप है, उसमें एकाकार करने पर उसकी अपवित्रता मिटकर पवित्रता प्रगट होती है।
यहाँ तो कहते हैं कि पवित्रता प्रगट हो वह भी एक हालत और दशा है। भाई! आहा...हा... ! जहाँ वस्तु को अन्तर एकरूप चिदानन्द पूर्ण शक्ति का सत्त्व जहाँ जैसा है; उसे तो विकारवाला नहीं, शरीरवाला नहीं, यह अल्पविकास हुआ वह नहीं और पूर्ण विकास की दशा तो उसमें से नयी प्रगट हुई उतना भी नहीं, वह तो त्रिकाल ज्ञायकमूर्ति है, त्रिकालपूर्ण