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गाथा - १०८
कर्ता कहाँ होगा ) ? मात्र रचना के काल में मेरी यह भावना थी, उसमें यह हुआ । इसलिए दोहे बनाये – ऐसा कहा जाता है, ऐसा है ।
मुमुक्षु - लिखा तो सही न ।
उत्तर - लिखा यही तो विवाद है न ।
मुमुक्षु - अकर्ता है तो लिखे किस प्रकार ?
उत्तर - कर्ता है नहीं तीन काल-तीन लोक में। भगवान आत्मा का स्वभाव, विभाव का कर्तृत्व भी जिसके स्वभाव में नहीं है । ऐसा कोई गुण नहीं कि विकार को करे। भगवान आत्मा, राग का अकर्तास्वभाववाला उसमें गुण है। समझ में आया ? यह उसमें शक्ति है। सैंतालीस (शक्तियों में) अकर्तापने की शक्ति है। अकर्तृत्व, अभोर्तृत्व, पर का, हाँ! आहा...हा...! राग को और भोग को, विकार को, अनुभव करना - ऐसा
गुण नहीं है। गुण हो तब तो त्रिकाल राग का कर्तृत्व खड़ा रहेगा और कभी मुक्ि नहीं होगी, सम्यग्दर्शन नहीं होगा । उसका गुण-धर्म यदि दुःख भोगने का हो, तब तो दुःख से मुक्त अर्थात् दुःख से मुक्त जैसा स्वरूप है, वह सम्यग्दृष्टि को दृष्टि में आयेगा ही नहीं। सम्यग्दर्शन ही नहीं होगा। भाई ! ऐसी बात है । आत्मा और आत्मा
कोई गुण कर्ता-भोक्ता है ही नहीं। ऐसा भी यहाँ परमाणु की पर्याय का रचना काल में एक यह ज्ञान ऐसा था कि ऐसा होता है। इससे उन्हें मैंने रचे- ऐसा कहा जाता है। समझ में आया ?
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कहते हैं कि – वे कहते हैं कि मुझे संसार भ्रमण का भय है । सन्त भवभीरु थे । भगे, तीर्थंकर जैसे तीन ज्ञान के स्वामी भी संसार को पीठ देकर भगे । आहा... हा... ! जैसे अग्नि सुलगती हो और पीछे बाघ आता हो और मनुष्य भागे... आग लगी, आग । यह `चार गति के भव और भव का भाव दुःखरूप है । वे भय को प्राप्त हुए हैं। स्वर्ग के सुख से भय को प्राप्त हैं। समझ में आया ? इसलिए कहते हैं, संसार में आत्मा को अनेक प्राण धारण करके अनेक कष्ट सहन करना पड़ते हैं, वहाँ परम निराकुल सुख की प्राप्ति नहीं होती है ।
मिथ्यात्व का गाढ़पना रहता है, जिससे प्राणी अपने आत्मिक अतीन्द्रिय