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________________ ४१४ गाथा-१०८ ग्रन्थकर्ता की अन्तिम भावना संसारह भय-भीयएण जोगिचन्द्र मुणिएण। अप्पा-संवोहण कया दोहा इकक-मणेण॥१०८॥ भव भीति जिनके हृदय, 'योगीन्दु' मुनिराज। एक चित्त हो पद रचे, निज सम्बोधन काज॥ अन्वयार्थ -(संसारह भय-भीयएण) संसार के भ्रमण से भयभीत (जोगिचंदमुणिएण) योगिचन्द्राचार्य मुनि ने (अप्पासंवोहण) आत्मा को समझाने के लिए (इक्क-मणेण) एकाग्रचित्त से (दोहा कया) इन दोहों की रचना की है। ग्रन्थकर्ता की अन्तिम भावना। संसारह भय-भीयएण जोगिचन्द्र मुणिएण। अप्पा-संवोहण कया दोहा इकक-मणेण॥१०८॥ पहले शुरुआत में ऐसा कहा था कि जो भवभीरु जीव है, उनके लिए मैं बनाता हूँ। यहाँ स्वयं (कहते हैं) मैं अपने आत्मा के लिए, सम्बोधन के लिए, मैंने मेरी भावना की एकाग्रता के लिए (रचना की है)। जैसे नियमसार में कहा न प्रभु ने? कुन्दकुन्दाचार्य ने णियभावणाणिमित्तं मए कदं मेरी भावना के लिए मैंने यह कहा है, भाई! ऐसे ही यहाँ आचार्य स्वयं कहते हैं कि अप्पा-संवोहण कया – मेरी आत्मा को मैंने सम्बोधन किया है, भाई ! हे आत्मा ! तू परमानन्द की मूर्ति है, उसमें स्थिर हो, उसमें स्थिर हो, उसमें स्थिर हो। दृष्टि और ज्ञान हुआ है परन्तु उसमें अब स्थिर हो। ऐसे सम्बोधन के कारण मैंने यह रचा है। समझ में आया? संसार के भ्रमण से भयभीत.... अरे! चार गति का भव (उसका) भय, जिसे भय लगा हो... समझ में आया? उसके लिए कहते हैं। चार गति का डर लगा है। आहा...हा...! पराधीनता, दुःखरूप दशा । स्वर्ग का भव भी दुःखरूप पराधीन है। चार गति
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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