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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
है न! यह ज्ञायक है, ऐसा होने से असाधारण, जो दूसरा नहीं - ऐसा गुण... ऐसे असाधारण गुण को अहेतुक को, अनादि - अनन्त को कारणरूप ग्रहण करके अर्थात् विकल्प आदि के व्यवहार को कारण (रूप) ग्रहण करके केवलज्ञान होता है - ऐसा नहीं है । यह अन्दर असाधारण ज्ञान आनन्दस्वरूप एकरूप को कारणरूप ग्रहण करके ऊपर... अर्थात् पर्याय में केवलज्ञानरूप होकर परिणमित हो जाता है। देखो! है न? प्रगट होनेवाले केवलज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिए उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का अक्रमिक ग्रहण होने से समक्ष संवेदन की (प्रत्यक्ष ज्ञान की ) आलम्बनभूत समस्त द्रव्य - पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं । भगवान को प्रत्यक्ष है - ऐसा तेरा स्वभाव है, भाई ! शक्ति का ऐसा स्वभाव है और व्यक्त होने में वह उसे कारणरूप ग्रहण करके ऊपर पर्याय में, जो ऊपर अल्पज्ञ आदि है, उसे (ज्ञानस्वभाव को ) कारणरूप ग्रहण करके एकाकार होने से पर्याय में केवलज्ञान के उपयोगरूप परिणमित हो जाता है । आहा... हा...! सूक्ष्म बहुत इसमें... भाई ! वह तो अरूपी है न! अरूपी के लक्षण अरूपी, उसका स्वभाव अरूपी, उसका कार्य अरूपी, कारण अरूपी, उसके गुण अरूपी । समझ में आया ?
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कहते हैं, इस बात को सन्देहरहित जानो । णिभतुं भगवान आत्मा के दर्शन से ही मुक्ति को प्राप्त हुए। आत्मा के दर्शन से ही मुक्ति को प्राप्त होंगे, आत्मा के दर्शन से मुक्तिको वर्तमान में महाविदेहक्षेत्र में (पाते हैं) । यह मुनि लिखते हैं, तब पंचम काल के हैं न यहाँ ? यहाँ कहाँ केवल (ज्ञान) है ? समझ में आया ? समझे ?
मोक्ष का उपाय केवलमात्र अपने ही आत्मा का अनुभव है। लो, दर्शन का अर्थ अनुभव है। मूल अनुभव ही कहना है । मोक्ष आत्मा का पूर्ण स्वभाव है। मोक्ष आत्मा का पूर्ण स्वभाव है। मोक्षमार्ग उसी स्वभाव की श्रद्धा और ज्ञान द्वारा अनुभव है। क्या (कहा) ? मोक्ष आत्मा का पूर्ण स्वभाव और मोक्षमार्ग उसी स्वभाव की..... स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान द्वारा अनुभव, वह मार्ग है । उस स्वभाव का, पूर्ण स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान और शान्ति अर्थात् चारित्र द्वारा अनुभव (होना), वह अनुभव मोक्ष का मार्ग है। अनुभव मोक्षमार्ग....