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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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१०७ । आत्मा का दर्शन ही सिद्ध होने का उपाय है। लो, इसमें से थोड़ा अर्थ चाहिए हो तो, इसमें थोड़ा अर्थ है, थोड़ा शब्दार्थ है । यह परमात्मप्रकाश का है, दूसरा अलग किया है।
जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिं जे सिहि जिण - उत्तु ।
अप्पा - दंसण ते वि फुडु एहउ जाणि णिभंतु ॥ १०७ ॥
ओ...हो...हो... ! श्री जिनेन्द्र ने कहा है.... देखो ! भगवान योगीन्द्रदेव आचार्य भी भगवान को बीच में लाते हैं । भाई ! परमात्मा तो ऐसा कहते हैं । जिनेन्द्रदेव वीतराग परमेश्वर, जिन्हें पूर्ण ईश्वरता पर्याय में प्रगट हो गयी है - ऐसे जिनेन्द्र प्रभु ऐसा उत्तु ऐसा उत्तु - ऐसा कहते हैं । जो सिद्ध हो गये हैं.... अभी जितने सिद्ध अनन्त हुए और जो सिद्ध होंगे.... भविष्य में सिद्ध होंगे। देखो! तीन काल ले लिये और जो सिद्ध हो रहे हैं... महाविदेहक्षेत्र में वर्तमान में सिद्ध हो रहे हैं। समझ में आया ? महाविदेहक्षेत्र में छह महीने और आठ समय मुक्ति कहीं बन्द नहीं हो गयी है । भरत और ऐरावत में नहीं है तो वहाँ छह महीने और आठ समय में छह सौ आठ (जीव) मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।
कोई अनन्त सिद्ध हुए, जो अनन्त सिद्ध होंगे, इससे अनन्तगुने हुए, ऐसा होने पर भी वस्तु तो इतनी की इतनी एक शरीर के अनन्तवें भाग में... समझ में आया ? वे सर्व प्रगट रूप से... यह । ते वि फुडु फुडु – प्रगटरूप से आत्मा के दर्शन से है। आत्मा
दर्शन से मुक्ति प्राप्त हुए हैं । अनन्त सिद्ध हुए, वे भगवान आत्मा का अनुभव करके प्राप्त हुए हैं। आत्मदर्शन । भेददर्शन, व्यवहार दर्शन - ऐसा नहीं । आत्मदर्शन, एक समय में पूर्ण प्रभु, वह अनन्त गुण का धाम एक रूप, उसका दर्शन करके अर्थात् अनुभव करके; जो अनन्त सिद्ध हुए, वे अनुभव से हुए; अनन्त सिद्ध होंगे, वे अनुभव से होंगे; अभी सिद्ध होते हैं, वे अनुभव से सिद्ध होते हैं । समझ में आया ? तीन काल लक्ष्य में ले लिये। ओहो...हो... ! तीनों काल में एक ही मार्ग है - ऐसा कहते हैं ।
मुमुक्षु – ज्ञान, चारित्र कहाँ गये ?
उत्तर – वे इसमें – दर्शन में आ गये। आत्मा पूर्णानन्द प्रभु का दर्शन हुआ, वहाँ ज्ञान भी सम्यक् हुआ, प्रतीति सम्यक् हुई और स्वरूपाचरण की स्थिरता शुरु हो गयी ।