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________________ गाथा - १०६ असंख्य पर लक्ष्य जाने से भेद रहता है; इस कारण उसे एक प्रदेशी समूहरूप से गिनकर एक प्रदेश कहा है। इससे असंख्य प्रदेश चले गये हैं- ऐसा नहीं है । ४०२ (ऐसा कोई कहता है कि) यह असंख्य कहा, वह व्यवहार से... व्यवहार से अर्थात् मिथ्या। ऐसा नहीं है। समझ में आया ? हमारे तो यह चर्चा बहुत होती थी । सम्प्रदाय में बहुत (चर्चा हुई है)। उन हंसराजभाई को वाचन बहुत था, अमरेली । संस्कृत पढ़े हुए, वाचन (अवश्य) परन्तु कुछ नहीं । यह असंख्य प्रदेशी कहा है, वह तो कल्पना है, वह व्यवहार है - ऐसा नहीं है। असंख्य प्रदेश, निश्चय से असंख्य प्रदेश हैं परन्तु असंख्य के भेद का विचार करना, वह विकल्प और व्यवहार है, इस अपेक्षा से एक प्रदेशी कहा गया है । यह पंचास्तिकाय उन ने पढ़ा अवश्य न ! वे पढ़ते थे । यहाँ है न, लोकप्रमाण एक प्रदेशी क्या कहा ? लोकप्रमाण, लोकप्रमाण तो कह दिया। संस्कृत पाठ है देखा न ! अविभागैकद्रव्यत्वाल्लोकप्रमाणैकप्रदेशाः वस्तु निश्चय से है । जैसे आकाश, अनन्त प्रदेशी निश्चय से है; धर्मास्ति, असंख्य प्रदेशी निश्चय से है। यह शक्ति में भी आता है न ? भाई ! सैंतालीस शक्ति में आता है । नियतप्रदेशत्व, नियतप्रदेशत्व एक शक्ति है। सैंतालीस शक्तियों में नियतप्रदेशत्व शक्ति है । यह असंख्य प्रदेश नियतप्रदेशत्व है परन्तु असंख्य का जहाँ लक्ष्य लेने जाये वहाँ भेद उठता है, इसलिए उसे असंख्य का भेद लक्ष्य करने से व्यवहार (कहा है) वस्तु व्यवहार नहीं, वस्तु तो असंख्य प्रदेशी वस्तु है । आहा... हा.... ! जैनदर्शन की वस्तु ऐसी है कि उसे जिस प्रकार कही है और उस प्रकार है। आत्मा में अनन्त गुण नहीं ? परन्तु अनन्त गुण हैं ऐसा, भेद करने जाये वहाँ विकल्प उठता है । एक रूप वस्तु है, इस कारण अनन्त गुण उसमें से चले गये हैं ? द्रव्य एक है, इसलिए अनन्त गुण चले गये हैं? परन्तु अभेद में अभेद दृष्टि से देखने पर भेद दिखाई नहीं देता । अभेद - में भेद नहीं – ऐसा नहीं परन्तु अभेद में देखने से भेद दिखाई नहीं देता क्योंकि भेद देखने जाये, वहाँ विकल्प उठते हैं और अभेद में नहीं रहता। बात यह है। समझ में आया ? नियतप्रदेशत्व, है न ? शक्ति है, हाँ ! एक की एक बात आचार्यों ने तो ओ... हो... ! सत् को बहुत प्रसिद्ध किया है, स्पष्ट किया है। देखो, जो अनादि संसार से लेकर
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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