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गाथा - १०३
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की विशेष प्रगटता हो, उसे आत्मबाग में रमणता, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं । वह चारित्र साक्षात् मोक्ष का कारण है वह अविनाशी सुख का कारण है। समझ में आया ?
सुख आत्मा का गुण है, उसे चारों घातिकर्मों ने रोक रखा है.... घाति (कर्म) तो निमित्त है, हाँ! रोक रखा है अर्थात् कोई द्रव्य रोकता नहीं, अपनी पर्याय में स्वयं भावघाति किया, तब द्रव्यघाति को निमित्त कहा जाता है। यह सोलहवीं गाथा में है, प्रवचनसार की सोलहवीं गाथा - स्वयंभू की गाथा में यह है द्रव्य, भाव, घातिकर्म । भाई ! आता है न ? सोलहवीं । कहो समझ में आया ?
परन्तु मुख्यरूप से उसे रोकनेवाला मोहकर्म है। ऐसा लिया। असावधानी... उसकी चर्चा अभी पण्डितों में चलती है। दूसरे एक कहते हैं कि चार कर्म है, एक कहते हैं मोहकर्म है । भाई ! पूरा अनन्त आनन्द, अनन्त आनन्द, तो केवलज्ञान होने पर प्रगट होता है । बारहवें में अनन्त सुख प्रगट होता है, सुख प्रगट होता है, अनन्त नहीं प्रगट होता ऐसी बड़ी चर्चा दो व्यक्तियों में चलती है। कैलाशचन्द्रजी और अजितकुमार!
यहाँ तो आत्मा का अनुभव, सम्यग्दर्शन होने पर अतीन्द्रिय आनन्द का अंश चौथे ( गुणस्थान में) प्रगट होता है । उस पाँचवें में आनन्द का अंश बढ़ता है, छठवें में बढ़ता है, सातवें में बढ़ता है, आठवें, नौवें, दशवें में बढ़ते हुए बारहवें (गुणस्थान में) आनन्द पूर्ण हो जाता है । अनन्त नहीं होता। समझ में आया ? जहाँ अन्दर केवलज्ञान और केवलदर्शन वह अनन्त वीर्य जहाँ प्रगट हुए, उस आनन्द को अनन्त उपमा दी जाती है । अनन्त आनन्द प्रगट हुआ। समझ में आया ? ऐसे अनन्त आनन्द का कारण, यह आत्मा का मोक्ष का मार्ग-उपाय है। स्वभाव... स्वभाव... स्वभाव । समझ में आया ?
यह बात ली है। हाँ ! क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव चार अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का जब क्षय कर डालता है, तब क्षायिक सम्यक्त्व और स्वरूपाचरणचारित्र प्रगट हो जाता है। ऐसा लिखा है, भाई ! यह बात सत्य है। इसका विवाद, अभी विवाद है। दूसरे (कहते हैं) स्वरूपाचरणचारित्र चौथे में नहीं होता, पाँचवें में नहीं होता, छठें में नहीं होता । अरे...! भगवान ! पर के आचरण में गुणस्थान बढ़ गया ? आहा... हा...! समझ में आया ?