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वीर संवत २४९२, श्रावण शुक्ल ७,
गाथा १०० से १०३
रविवार, दिनाङ्क २४-०७-१९६६ प्रवचन नं.४३
सामायिक – समताभाव किसे कहना? बात आयी - 'केवली एम भणइ' आया है न? राग-द्वेष का परिहार (करके) समभाव को प्रगट करे, उसे सामायिक प्रगटरूप से केवली महाराज कहते हैं। आत्मा ज्ञानानन्दस्वरूप है – ऐसा जिसे अन्तर निर्णय और भान हुआ, उसे दूसरे प्राणियों के प्रति समभाव है। समझ में आया? धर्मी जीव की दृष्टि, मिथ्यादृष्टि से उलटी हो गयी है।
अज्ञानी दूसरों के काम देखकर इसने यह किया, उसने यह किया, इसने इसका बिगाड़ा, इसने इसका सुधार – ऐसा मानकर अज्ञानी स्वयं राग-द्वेष करता है। ज्ञानी ऐसा जानता है कि कोई किसी का बिगाड़ता या सुधारता नहीं है । सब-सबकी दशा अपने कर्म -अनुसार संयोग-वियोग होता है। उसके कारण उसे दूसरों के प्रति इसने इसका ऐसा किया, इसलिए द्वेष होता है और इसने अच्छा किया, इसलिए राग होता है - ऐसा कारण सम्यग्दृष्टि को ज्ञान में, श्रद्धा में नहीं रहता। समझ में आया?
इस कारण यहाँ अन्त में यह कहा - वह जानता है कि सर्व जीवों को सुखदुःख और उनका जीवन-मरण उनके ही स्वयं के कर्मों के उदय अनुसार होता है, कर्मों के उदय को कोई मिटा नहीं सकता है। यह बन्ध अधिकार की बात ली है। यहाँ धर्मी अपने आत्मस्वभाव को ज्ञाता-दृष्टारूप में स्वीकार करता, जानता, स्थिरता करता (है)। समझ में आया? दूसरे जीव का जीवन और मरण, सुखी-दुःखी के संयोग, कोई दूसरा किसी को कर सकता है – ऐसा ज्ञानी नहीं मानता है। जगत् में अनेक काम चलते हैं, उनके अपने-अपने अन्तरंग उपादान (के) कारण से (वे) कार्य होते हैं।
मुमुक्षु - निमित्त आवे तो होते हैं।