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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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निर्विकल्पनिर्मोह-निरंजननिजशुद्धात्म-समाधिसंजातसुखामृतरसानुभूतिलक्षणे गिरिगुहागहरे स्थित्वा – कैसी गिरिगुफा? गिरिगुफा का विशेषण प्रयोग किया कि भगवान आत्मा को – शुद्ध पूर्ण है, उसे जानकर.... समझ में आया? इति मत्वा निर्विकल्पनिर्मोह-निरंजननिजशुद्धात्म-समाधिसंजातसुखामृतरसानुभूतिलक्षणे गिरिगुहागहरे स्थित्वा सर्वतात्पर्येण ध्यात्व्य इति। यह गिरिगुफा है, बाहर की गिरिगुफा में वह गिरिगुफा ढूँढता है। निवृत्त ही है, तेरी गिरिगुफा यहाँ पड़ी है। समझ में आया? कहीं अकेले जाय... परन्तु यहाँ है या नहीं? तू तो सर्वत्र तू का तू है। समझ में आता है? जहाँ जाये, गिरिगुफा में जाये तो तू तेरे समभाव से देख, तो होता है ऐसा है। यह समुदाय में रहकर बैठा हो तो तू तुझे अकेला देखता हो – ऐसा है। उसमें कहीं कोई बाहर की चीज तुझे व्यवधान करती है या विषमता उपजाती है ऐसी कोई चीज है नहीं। आहा...हा...!
यह तो भाई! बनारसीदासजी ने यह नहीं लिखा? चाहे रहो घर में... पण्डितजी! ऐसा है। चाहे रहो घर में चाहे रहे मन्दिर में, वन में मन्दिर में - ऐसा है। चाहे रहो वन में चाहे रहो मन्दिर में – ऐसा । बनारसीदासजी का कुछ है। बहुत सब पाठ कहीं याद होते हैं ? पीछे है, समझ में आया?
आचार्य महाराज क्या कहते हैं ? देखो, हे मित्र! आहा...हा...! कहाँ से निकाला यह ? 'सखे 'आत्मानमात्मनि सखे' आहा...हा...! आचार्य (कहते हैं) हे सखा ! मेरे साथ का मित्र त है। आहा...हा...। हम भी स्वभाव को साधकपने ध्याते हैं न! और अब स्वभाव में जाते हैं, हाँ! तू भी सखा-मेरा मित्र है, भाई! आहा...हा... ! कितनी करुणा दृष्टि से यह मित्र बनाया, लो! भाषा! सखा! हे मित्र! सच्चे साम्यभाव की गुफा के बीच में बैठकर व निर्दोष पद्मासन आदि बाँधकर अपने ही एक आत्मा के भीतर अपने ही परमात्मा स्वरूपी आत्मा को तू ध्यावे, जिससे तू समाधि का सुख अनुभव कर सके। अमृताशीति का श्लोक है। साम्यभाव की गुफा... भाई ! समता की गुफा में जा! ज्ञानमय भगवान शुद्धरूप को देखने जाये, वहाँ गुफा के अन्दर बैठा – ऐसा कहते हैं। राग से निकल गया, संयोग से निकल गया - ऐसा भगवान आत्मा, अनुभूति लक्षण – ऐसी