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गाथा-९६ और परभाव का त्याग नहीं करता... सो सयल सत्थई जाणिइ भले सर्व शास्त्रों को जाने तो भी मोक्ष के सुख को नहीं प्राप्त करता। शास्त्र का पठन... बहुत क्षयोपशम... बहुत क्षयोपशम... क्षयोपशम... क्षयोपशम समुद्र जैसा, परन्तु भगवान जाना नहीं और राग को पृथक् करके छोडा नहीं (तो) क्या जाना?
मुमुक्षु - शास्त्र पढ़ने से संवर-निर्जरा होती है, फिर किसलिए निकाले?
उत्तर - अरे...! भगवान ! यह तो शास्त्र में आता है। स्वाध्याय करते हुए ज्ञानी को असंख्यगुणी निर्जरा होती है – ऐसा धवल के पहले भाग में आता है परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं है कि शास्त्र सन्मुख का जो विकल्प है, उससे भी संवर निर्जरा (होते हैं)। ऐसा नहीं है। उस समय उसका घोलन अन्तर सन्मुख ढलता है। समय-समय में मुख्य निश्चय तरफ ही परिणति हो गयी है। उसे इस शास्त्र के स्वाध्याय काल में विकल्प तो जो है, वह तो पराश्रय पुण्य का कारण है, परन्तु उस समय स्वभाव सन्मुख का जितना झुकाव है, उतनी निर्जरा है। वह निर्जरा है। शास्त्र स्वाध्याय के विकल्प से निर्जरा हो, तब तो तैंतीस सागर तक सर्वार्थसिद्धि के देव को बहुत निर्जरा होनी चाहिए। (उसका) गुणस्थान बदलता नहीं, चौथे का चौथा रहता है। तैंतीस सागर तक स्वाध्याय (चले) और अन्त में वह भी ऐसा कहे कि अरे... यह विकल्प छूटे (और) स्थिरता हो उस दिन हमारे निर्जरा विशेष होगी। आहा...हा... ! यह मनुष्यपना पायेंगे... हमारे गुणस्थान की दशा स्वर्ग में बढ़ती नहीं है। पुण्य बहुत, पुण्य बहुत न! जहाँ पानी का प्रवाह हो, वहाँ कोई खेती की जा सकती है ? बीज डले किस प्रकार अन्दर ? टिके किस प्रकार ? ऐसे ही सम्यग्दर्शन होने पर भी पुण्य का प्रवाह बहुत है, पुण्य का प्रवाह बहुत है, इसलिए स्थिरता का बीज वहाँ नहीं रह सकता। समझ में आया? नारकी में क्षार जमीन है, जैसे क्षार जमीन में बीज उगता नहीं और पुण्य के प्रवाह में बीज उगता नहीं, ऐसे ही पुण्य के प्रवाह में पड़े हुए देव, स्वरूप की स्थिरता नहीं कर सकते। नारकी में पाप किये वे अन्तर की स्थिरता नहीं कर सकते। सम्यग्दर्शन तक कर सकते हैं। समझ में आया? वह भी अन्त में तैंतीस सागर स्वाध्याय करके... तैंतीस सागर अर्थात् क्या? आहा...हा...! दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम का एक सागरोपम, एक पल्योपम के असंख्य भाग में, असंख्य अरब वर्ष ।