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योगसार प्रवचन (भाग-२)
विषयभोगों की आकुलता वह तृष्णारूपी रोग है । उसे तृष्णा रोग हुआ, पुण्य की अभिलाषा से पुण्य बँध गया। पुण्य अर्थात् शुभभाव हुआ, बँध गया (और) स्वर्ग में नौवें ग्रैवेयक तक चला गया। वहाँ से मरकर मनुष्य होकर तृष्णा का रोग हुआ क्योंकि पुण्य की इच्छा हुई आत्मा के आनन्द की दृष्टि नहीं थी। नौवें ग्रैवेयकवाले लिये हैं। मिथ्यादृष्टि है न ? इनकी बात करते हैं, हाँ ! मिथ्यादृष्टि को तृष्णा रोग लागू पड़ा है। 'आत्मभ्रान्ति सम रोग नहीं' वह भ्रान्ति, आत्मा को भूलकर इन्द्रिय के सुख में और पुण्य में प्रीति (होना), वही बड़ी भूल और भ्रान्ति है। नौवें ग्रैवेयक में शुभभाव से गया, वहाँ से निकलकर मनुष्य हुआ तो वह मिथ्यादृष्टि है । इन्द्रियसुख की रुचि है तो तृष्णा का रोग चालू है। तृष्णा का रोग लागू हुआ है । आत्मा की भावना तो है नहीं, पुण्य की- पाप की भावना है। तृष्णा बड़ा रोग लागू पड़ा है। यह बड़े चक्रवर्ती आदि तृष्णा में रोगी हैं- ऐसा कहते हैं। पैसेवाले तृष्णा के रोगी हैं, चारों ओर भटका करते हैं, यह... पैसा, यह... पैसा, यह... पैसा । इन्द्रियसुख के फल भोगने की इच्छा में तृष्णा का रोग लागू पड़ा है। भटकते रहते हैं । जैसे गरीब मनुष्य भटकता है, ऐसे यह भिखारी होकर लाओ... लाओ... लाओ... लाओ... ( करता है) । फिल्म में से पैसा लाओ, दूसरा क्या ? नाटक में से लाओ, मकान में से लाओ, भाड़े में से लाओ। भाड़ा समझते हो ? भाड़ा को क्या कहते हैं ? किराया, उसमें से लाओ । तृष्णा का रोग लगा है। भगवान आत्मा आनन्द का घर है, उसकी तो दृष्टि है नहीं, तो उसे पुण्यपरिणाम की रुचि है; तृष्णा का रोग लागू हुआ है, क्षय लागू हुआ है, क्षयरोग । आत्मा की शान्ति को क्षयरोग लागू हुआ है।
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रोग से पीड़ित प्राणी घबराकर विषयभोगों में तृष्णा के शमन के लिये ता है । भोग करके क्षणिक तृप्ति उस समय पाकर फिर और अधिक तृष्णा को बढ़ा लेता है, दुःखों के साधनों में जो आकुलता है, वैसी ही आकुलता तृष्णारूपी रोग के बढ़ने में होती है। दोनों को समान लगाया है। ठीक लिखा है। कहते हैं कि जैसे, दुःखों के साधन में आकुलता होती है, हथियार सामने आवे, रोग सामने आवे और दुःखी होता है, ऐसा (वैसी ही ) आकुलता तृष्णारूपी रोग की वृद्धि में होती है। इस तृष्णारूपी रोग में आकुलता बढ़े, वह बड़ा रोग है - ऐसा कहते हैं। क्या कहा ? दुःख का