________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
उत्पन्न हुई, तब वह आस्रव बाकी रह गया, वह बन्ध का कारण है - ऐसा व्यवहार से जानता है। समझ में आया ?
२५३
वहाँ स्वरूपाचरणचारित्र है, जो अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होने से प्रगट हो जाता है... ज्ञानचन्दजी ! भाई ! अनन्त गुण में से चारित्रगुण का अंश न आया हो तो अनन्तानुबन्धी जाने पर क्या हुआ ? क्योंकि अनन्तानुबन्धी चारित्रमोह की प्रकृति है, भाई ! भले ही वह चाहे जिस शास्त्र में से निकाले कि वह तो दर्शनमोह की प्रकृति में जाती है; विपरीत-अभिनिवेश में आती है - ऐसा गोम्मटसार के दृष्टान्त देते हैं परन्तु भाई ! यह तो मिथ्यात्व की बात बनाकर करने का कहा है परन्तु चारित्रमोह की प्रकृति को पच्चीस है, दर्शनमोह की तीन है, तो सम्यक् अनुभव में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी गये तो वह कषाय की प्रकृति है । कषाय जाने से क्या हुआ ? अकषाय अंश हुआ या नहीं? अकषाय अंश हुआ उसका नाम स्वरूपाचरणचारित्र है । समझ में आया? इसमें वाद-विवाद का समय भी कहाँ है ? यह तो वस्तुस्थिति ही ऐसी है। अनन्त काल में कठिनाई से ऐसा अवसर मिला... आहा... हा... ! निगोद में से निकलकर कितने पंचेन्द्रिय, उसमें मनुष्य, उसमें वीतराग की वाणी का सुनना, उसमें यह यथार्थ बात कान में पड़ना और उसकी रुचि होना, यह तो महादुर्लभ, दुर्लभ और दुर्लभ है। समझ में आया ?
पाँचवें देशसंयम ( गुणस्थान में) अप्रत्याख्यान कषाय का उदय नहीं होता इस कारण स्वरूपाचरण में अधिक स्थिरता होती है... लो ! चौथे में भगवान आत्मा पूर्ण शुद्ध की प्रतीति हुई, उसके साथ आंशिक स्थिरता भी हुई और आगे बढ़कर जब पंचम गुणस्थान आया, वह गुणस्थान अन्तरदशा की बात है । वहाँ दूसरी अप्रत्याख्यानावरणीय...... समझ में आया ? यहाँ स्वरूप में स्थिरता की वृद्धि हुई ( तो उस ओर) अप्रत्याख्यानावरणीय का नाश हुआ तो वहाँ स्थिरता बढ़ गयी । यहाँ (चौथे गुणस्थान में ) थोड़ी स्थिरता थी या सीधी पाँचवें से आयी ? समझ में आया ? स्थिरता का अंश, स्वसंवेदन का अंश, स्वरूपाचरण कणिका का अंश... कणिका ली है न ? कणिका ली है। 'परमार्थवचनिका' (में लिखा है कि) कणिका जागी, है न ? अन्तर्दृष्टि के प्रमाण में सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्ग साधता है।