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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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अत्यन्त भिन्न है, वह तो अत्यन्त भिन्न है। यह आस्रव तो एक समय में अनित्य तादात्म्यरूप दिखता है परन्तु नित्य तादात्म्य स्वभाव की अपेक्षा से वह पर्याय भी संयोगीभाव-परद्रव्य ही है। आहा...हा...! समझ में आया? नित्य तादात्म्यस्वभाव, ज्ञान-आनन्द आदि तादात्म्यस्वभाव से देखने से तो, जो अनित्य एक समय की (पर्याय) तादात्म्य है, वह नित्य त्रिकालस्वभाव को देखने से वह भाव भी संयोग में जाता है। नवरंगभाई! यह कर्ता -कर्म में आया है। पहली ६९-७० गाथा में (आया है)। ६९-७० में उसे संयोगीभाव कहा ह । सस्कृत टाका, अमृतचन्द्राचार्यदेव (ने कहा है)। क्योंकि वस्तुस्वभाव नहीं है। समझ में आया? जैसा है, वैसा देखने से दृष्टि शुद्ध को देखती है। आहा...हा...! बात भी..... यह आत्मा कैसा है ? इसका इसे पता नहीं है। इसकी चीज की खबर बिना इसे धर्म करना है। लो ! क्या करना? धर्म का पिण्ड तो यह है। धर्म शब्द से स्वभाव । स्वभाव का पिण्ड धर्मी है। अब स्वभावपिण्ड धर्मी है, उसकी दृष्टि और उसका ज्ञान किये बिना धर्म करना है। कहाँ से करना? समझ में आया?
भगवान आत्मा अनन्त गुण सम्पन्न प्रभु, इस शरीर, कर्म और संयोगी विकारी भाव से भिन्न है। अभी है, है उसे ऐसा देखने से शुद्ध दिखता है। आहा...हा...! यह तो राग, विकल्प और निमित्त का अस्तित्व अनादि से देखता है । यह... यह... यह... अंशबुद्धि में बुद्धि विस्तृत करे तो इसकी बुद्धि राग और संयोग में जाती है, उनका स्वीकार है। यह भगवान आत्मा.... समझ में आया? एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में पूर्णानन्द प्रभु है। उसे शुद्ध है – ऐसा दिखता है।
जैसे मिट्टी सहित पानी को जब पानी के स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाए तो पानी शुद्ध ही दिखता है। पानी मलिन है ? मलिन तत्त्व तो मिट्टी के कारण मिट्टी का भाग है। समझ में आया? पानी का भाग नहीं है।
मुमुक्षु : मिट्टी मैली है?
उत्तर : मिट्टी ही मैली है, पानी कहाँ मैला है? यह मैला परिणाम है, वह मिट्टी का है; पानी का नहीं। इसी प्रकार भेदविज्ञान की शक्ति से अपनी आत्मा को कर्मों से भिन्न और कर्मोदयजनित भावों से भिन्न..... लो, यह आस्रव आया। शुभ और अशुभभाव