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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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चैतन्य भगवान ने अनन्त गुण शाश्वत् पड़े हैं। शाश्वत् और वस्तु शाश्वत् है। शक्ति - स्वभाव-गुण शाश्वत् । उसमें स्थिर, पहले दृष्टि करके, दृष्टि उसमें लगाना, उसमें रुचि हुई और स्वरूपाचरण भी हुआ, फिर विशेष स्थिर होना चारित्र है। उससे संवर और निर्जरा उत्पन्न होती है और आस्रव तथा बन्ध का व्यय होता है। ध्रव में लक्ष्य और रुचि करने से तथा स्थिर होने से संवर-निर्जरा की पर्याय का उत्पन्न होना और अशुद्ध आस्रव-बन्ध का नाश होना (होता है)। अजीवतत्त्व तो ऐसा है कि यहाँ आस्रव का नाश होता है तो कर्म की पर्याय भी स्वयं के कारण पलट जाती है। कहो, समझ में आया?
यह आत्मा निश्चय से जन्म, जरा, मरणरहित अविनाशी है... आत्मा जन्मता है? आत्मा जन्मेगा? कौन जन्मता है ? इस शरीर के संयोग को लोग जन्म कहते हैं। शरीर के संयोग को जन्म कहते हैं। यह शरीर, शरीर... आत्मा में जन्म कहाँ है? आत्मा जन्में अर्थात् नया उत्पन्न होता है? आत्मा मरे अर्थात् नाश होता है ? जरा, मरण, जन्म से रहित भगवान आत्मा अविनाशी सामान्य और विशेष गुणों का समूह है। लो! आत्मा में अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सामान्यगुण अनादि से हैं । सामान्य का अर्थ, जो गुण दूसरे द्रव्य में भी है (और) स्वयं में भी है, उन्हें सामान्य कहते हैं और अपने में है तथा दूसरों में नहीं - ऐसे विशेष गुण आत्मा में है। ज्ञान, दर्शन, आनन्द, चारित्र... कहो समझ में आया? इन विशेष-गुणों का समूह है और यह विशेषगुण तथा सामान्यगुण जो त्रिकाल है, उनमें एकाग्र होने से सामान्य में से विशेष पर्याय होती है, विशेष पर्याय होती है, वह संवर-निर्जरा है। समझ में आया?
मिथ्याश्रद्धा में सामान्य का विशेष में अज्ञान और राग-द्वेषरूप परिणमन था, भगवान आत्मा सामान्य और विशेषगुण का पिण्ड होने पर भी, जब तक राग, पुण्य और निमित्त पर रुचि थी तो मिथ्यात्व और राग-द्वेष की उत्पत्ति होती थी। जब भगवान आत्मा सामान्य-विशेषगुण का पिण्ड है, तो उस गुण की दृष्टि गुणी पर गयी तो गुण का विस्तार विशेषपने, निर्मलपर्यायपने प्रगट हुआ। वह निर्मलपने प्रगट हुई, उसका नाम संवर और निर्जरा कहा जाता है। कहो, समझ में आया?