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गाथा-९०
है। शुद्ध पर्याय प्रगट न हो तो वह शुद्ध द्रव्य आया कहाँ से? वहाँ ऐसा कहते हैं। 'उपास्यमानः' उसे कहते हैं। समझ में आया? अपना आत्मा शुद्ध है।
‘ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्ध' - यह शुद्ध है – ऐसा किसे हुआ? जिसको परद्रव्य का लक्ष्य, आश्रय छोड़कर अपनी ओर का उपास्यमान हुआ तो पर्याय ने द्रव्य की सेवा की तो पर्याय में शुद्धता प्रगट हुई, उस शुद्धता से जाना कि यह शुद्ध है, शुद्ध तो त्रिकाल द्रव्य शुद्ध है। समझ में आया? तब त्रिकाल द्रव्य शुद्ध है। पर्याय के वेदन बिना यह शुद्ध है, यह आया कहाँ से? वहाँ ऐसा कहते हैं। समझ में आया? भगवान आत्मा ज्ञायक शुद्ध परन्तु इस शुद्धता के भान बिना परद्रव्य से हटकर निजद्रव्य का आश्रय लिया तो आश्रय की पर्याय में शुद्धता आयी और शुद्धता द्वारा (जाना कि) यह द्रव्य शुद्ध है। त्रिकाल द्रव्य शुद्ध है, यह त्रिकाल द्रव्य शुद्ध ही है। समझ में आया?
इस द्वादशांग की वाणी का सार यह है कि परभावों से भिन्न शुद्धद्रव्य जाना जाये... वरना तो वस्तु, द्रव्य तो शुद्ध ही है परन्तु शुद्ध है – ऐसा भास आये बिना शुद्ध किसने माना? समझ में आया? वह त्रिकाल शुद्ध है परन्तु त्रिकाल शुद्ध है, वह कहीं वाणी का विषय है ? क्या धारणा का विषय है ? वह शुद्ध है; परद्रव्य का लक्ष्य व्यवहार का (लक्ष्य) अर्थात् पराश्रय छोड़कर स्वद्रव्य का आश्रय लिया तो सम्यग्दर्शन ज्ञान की शुद्धता हुई उसके द्वारा (जाना कि) यह पूरा शुद्ध है, उसे शुद्ध है, उसे द्रव्य शुद्ध है। समझ में आया? परद्रव्य के आश्रय से अशुद्धता का सेवन है और यह द्रव्य शुद्ध है – ऐसा कहाँ से आया? समझ में आया? __ मुमुक्षु : सर्वज्ञ भगवान जानते हैं कि द्रव्य शुद्ध है।
उत्तर : सर्वज्ञ भगवान जाने, उसमें इसे क्या आया? भगवान तो जानते हैं, प्रभु तुम जाणग रीति, सहू जग देखता हो लाल.... प्रभु तुम जाणग रीति, सहू जग देखता हो लाल... निजसत्ता ए शुद्ध सहूने पेखता हो लाल...' हे नाथ! आपकी जानने की विधि में प्रत्येक आत्मा सत्ता से शुद्ध है – ऐसा आप देखते हो। क्योंकि पुण्य-पाप है, वह कहीं आत्मा नहीं है। कर्म, शरीर अजीव है; पुण्य-पाप, आस्रव है। भगवान देखते हैं - प्रभु तुम जाणग रीति