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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण १३,
गाथा ८९ से ९०
शनिवार, दिनाङ्क १६-०७-१९६६ प्रवचन नं.३६
'योगसार', योगीन्द्रदेव के ७९ श्लोक में अन्तिम की गाथा है। देवसेनाचार्य तत्त्वसार में कहते हैं। अधिकार क्या चलता है ? देखो! सम्यग्दृष्टि जीव, परव्यवहार को छोड़कर अपने शुद्धस्वभाव का आश्रय लेकर उसमें लीन होता है, वही एक मोक्ष का मार्ग है। इस गाथा के सार में यह लिखा है। समझ में आया?
अप्प-सरूवहँ जो रमइ छंडिवि सहु ववहारू।
सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावइ भवपारू॥८९॥ इसके आधार में यह गाथा दी है, देखो!
लहइ ण भव्वो मोक्खं जावइ परदव्व बावडो चित्तो।
उग्गतवंपि कुणंतो सुद्धे भावे लहुं लहइ॥ ३५॥
एक शब्द में कितना भरा है, देखो! जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है... भगवान आत्मा अपना स्वद्रव्य शुद्ध चैतन्यमूर्ति का आश्रय छोड़कर जब तक परद्रव्य का आश्रय करता है, तब तक उसे मुक्ति नहीं होती है। समझ में आया? सम्यग्दर्शन में भी पहले स्वद्रव्य का आश्रय होता है, बाद में भी जितना परद्रव्य के आश्रय से राग रहे, तब तक उसकी मुक्ति नहीं होती है।
मुमुक्षु : राग से संवर-निर्जरा होते हैं।
उत्तर : राग से संवर-निर्जरा, वह पण्डित कहता है, वह पण्डित (संवत) २०१३ के साल में कहता था। व्यवहार बन्ध का कारण है, लाओ सिद्ध कर दूं। कौन माने?
मुमुक्षुः ............