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गाथा-७१
वह कर्मक्षयकारक और आत्मा आनन्ददायक है। पुण्य-पाप के भाव बन्धकारक है तो भगवान आत्मा के शुद्धस्वरूप का उपयोग – शुद्धोपयोग, वह कर्म का क्षयकारक है। पुण्य-पाप का भाव बन्धकारक है तो अपने आत्मा के शुद्धस्वभाव का शुद्धोपयोगरूपी आचरण – व्यापार कर्म-क्षयकारक है।शुभ और अशुभभाव दुःखदायक है, दुःखदायक है तो आत्मा आनन्द और शुद्ध भावस्वरूप, उसका शुद्धोपयोग, वह आनन्ददायक है। उपयोग आनन्ददायक है, समझ में आया? उपयोग आनन्ददायक है। अपने आत्मा में पुण्य-पाप से रहित शुद्धोपयोग करना (वह आनन्ददायक है) क्योंकि पुण्य-पाप का भाव बन्धकारक है तो आत्मा का स्वभाव, उसकी श्रद्धा-ज्ञान का शुद्धोपयोग, वह कर्मक्षयकारक है।शुभाशुभभाव दु:खदायक है तो आत्मा शुद्ध आनन्दस्वरूप, उसका अन्दर शुद्ध व्यापार, शुद्ध उपयोग आनन्ददायक है। समझ में आया? कहो, समझ में आया या नहीं इसमें?
मुमुक्षु : दो नाम पड़े हैं तो दोनों के फल अलग हैं न?
उत्तर : दोनों के फल अलग कहे न ! एक का पाप और एक का पुण्य, परन्तु दोनों ही बन्धन हैं, दोनों ही दुःखरूप हैं; एक मन्द आकुलता और एक तीव्र आकुलता (स्वरूप है) इतना अन्तर है परन्तु दोनों दुःखरूप हैं।
तत्पश्चात् थोड़ा स्पष्टीकरण किया है। सम्यग्दृष्टि अविरति होने पर भी... धर्मी जीव, जिसे अपने शुद्ध चैतन्यमूर्ति की रुचि, दृष्टि और परिणमन है । मैं शुद्ध आनन्द हूँ, उसकी दृष्टि है, उसकी दृष्टि पुण्य-पाप पर नहीं है। तो कहते हैं कि गृहस्थ में धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थ साधन में अनुरक्त होने पर भी सब ही शुभ-अशुभ कार्यों को चारित्रमोहनीय उदय के आधीन होकर करता है... अर्थात् होने हैं, ऐसा, परन्तु इस सर्व काम को अपना आत्मिक हितरूप नहीं मानता... धर्मी जीव को शुभ-अशुभभाव आते हैं, होते हैं परन्तु उसमें अपना हित नहीं मानते। समझ में आया?
वह तो यही मानता है कि निरन्तर आत्मिक बाग में रमण करूँ... धर्मी की दृष्टि तो शुद्धात्मा पर दृष्टि है। आत्मा आनन्दस्वरूप सिद्धसमान है, उसकी दृष्टि हुई - ऐसा धर्मी, अपने आत्मा के आनन्द में रमण करूँ - ऐसी उसकी भावना होती है। पुण्य -पाप भाव होते हैं, परन्तु उनमें रहूँ, टिकू - ऐसी भावना नहीं होती। मैं वीतरागता का