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गाथा - ६९
‘योगसार' बनाया है। योगसार, अर्थात् ... इस आत्मा का शुद्ध स्वभाव, पवित्र अनादि है, उसमें एकाकार होना, वह धर्म का सार है। कुछ समझ में आया ? आत्मा... देखो ! ६९ में यह आता है - जीव सदा अकेला है ।
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उक्क उपज्जइ मरइ कु वि दुहु सुहु भंजइ इक्कु ।
णरयहं जाइ वि इक्क जिउ तह णिव्वाणहँ इक्कु ॥ ६९ ॥
स्वजन,
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देखो ! क्या कहते हैं ? जीव अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है। अकेला जीव मरता है, देह छूटती है तो स्वयं को अकेले को ही मरना पड़ता है । कोई परिवार साथ नहीं आ सकता और अकेला जन्मता है। जन्म में भी कोई साथ नहीं पूर्व के कोई कुटुम्बी, उनके लिए पाप किये हों तो साथ कोई आता है ? नरक में जन्म ले, पशु में जन्म ले; स्वयं अकेला जन्मता है और अकेला मरता है, कोई साथ में नहीं है। इक्क जिप णरयहं जाइ - जैसे भाव किये हों, वैसे अपने भाव लेकर नरक में जाता है । अकेला नरक में जाता है, कोई कुटुम्ब - परिवार साथ नहीं आता। मैंने तुम्हारे लिए पाप किये, हमारे साथ तो चलो ! और इक्क णिव्वाणहं- तथा अकेला जीव फिर निर्वाण पाता है। अपना शुद्धस्वरूप, परमानन्द परमस्वरूप, उसकी एकत्वबुद्धि / दृष्टि एकान्त निर्मल करके, अपने स्वभाव में स्थिर होकर आत्मा अपने से स्वयं से अकेला मोक्ष में जाता है। कहो, समझ में आता है ? कोई गुरु भी साथ में नहीं आते, केवली भी साथ में नहीं आते, शास्त्र साथ में नहीं आते, संघ साथ में नहीं आता; अपना स्वरूप शुद्ध चैतन्य है, उसको पुण्य-पाप के राग से भिन्न करके, निज स्वरूप में एकत्व करके अपना आत्मा ही अपने को निर्वाण प्राप्त कराता है, उसमें किसी की मदद - सहायता नहीं है । कहो, समझ में आता है ?
यहाँ एकत्व भावना का विचार किया गया है। इस श्लोक में एकत्व भावना मैं अकेला हूँ - (उसका विचार किया है।) इस जीव को अकेले.. जन्मना और अकेले ही मरना पड़ता है। प्रत्येक जन्म में माता-पिता, भाई-बन्धु इत्यादि मित्रों और अन्य चेतन-अचेतन पदार्थों का संयोग होता रहा और छूटता रहा है । अनेक जन्मों में कुटुम्ब का संयोग हुआ और संयोग छूट गया, स्वयं तो अकेला ही रहा, कोई साथ नहीं आया - ऐसा जानकर अपने स्वरूप का अन्तर साधन करना - यह कहते हैं। योगसार