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________________ १९० गाथा-८७ यहाँ तो आचार्य (कहते हैं) निर्वाण का उपाय एक शुद्धात्मानुभव है, जहाँ मन के सर्व विकल्प... और विचार बन्द हो जाते हैं, काय स्थिर होती है, वचन नहीं रहता । यह तो ठीक, इसका कुछ नहीं । स्वानुभव का प्रकाश होता है, उसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान में और चारित्र के अंश में भी निर्विकल्प समाधि होती है । निर्विकल्प - रागरहित शान्ति, श्रद्धा-ज्ञान और शान्ति (होवे), वह निर्विकल्प समाधि है, वही मोक्ष का मार्ग है। अद्भुत कठिन बात है। ऐसा क्यों कहा ? भाई ! उदयति नय निक्षेप ( समयसार कलश ०९) नहीं कहा ? नय निक्षेप और प्रमाण भी उड़ा दे, कारण कि भेद पर तेरा लक्ष्य जाएगा तो विकल्प होगा। भगवान आत्मा में जो परिपूर्णता पड़ी है, जिसमें अनन्त गुण की एकरूपता है, उस पर दृष्टि दे, उसमें रमणता करतो तुझे निर्वाण होगा ही। जैसे, पहले में कहा कि निःसन्देह बँधेगा ... ऐसे (यहाँ कहते हैं) नि:सन्देह तेरी मुक्ति होगी... शङ्कारहित । गुलाँट खायी न! गुलाँट खाया.... समझ में आया? यह व्यवहाररत्नत्रय मुक्ति का उपाय नहीं है ऐसा कहते हैं । मुमुक्षु: मदद करता है। उत्तर : मदद-फदद क्या करे ? आहा... हा... ! निमित्त, निमित्तरूप से है। निमित्तरूप का अर्थ – यहाँ कार्य होता है तो निमित्तरूप से सहकारी विकल्प है, उसे उपचार से मोक्षमार्ग कहा । है नहीं; है तो वह बन्ध का मार्ग । मुमुक्षु : विकल्प होवे तो किञ्चित् लाभ होता है । उत्तर : जरा भी लाभ नहीं है। मुमुक्षु : अशुभ से बचता है । उत्तर : स्वभाव की दृष्टि से अशुभ से बचता है। यदि उससे बचे तो मिथ्यादृष्टि भी शुभ में अशुभ से बचा कहा जाए। (मिथ्यादृष्टि ) बचा ही नहीं... । भगवान आत्मा ! अतीन्द्रिय आनन्द का एकरूप प्रभु, उसकी दृष्टि करने से ही और उसमें लीन होने से ही मोक्ष का मार्ग प्रगट होता है, दूसरा कोई मोक्षमार्ग नहीं है । क्या हो ? मुमुक्षुः शान्त निर्वाण......
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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