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गाथा - ७१
सुख चाहते हैं । सामान्य रीति से यह बात प्रसिद्ध है कि पाप से दुःख होता है और पुण्य से सुख होता है। यह साधारण लोग इस चर्चा में पड़ते हैं ।
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जब धर्म की चर्चा होती है, तब यही विचार किया जाता है कि पापकर्म मत करो पुण्यकर्म करो । पुण्य से उत्कृष्ट कर्म बँधते हैं। देखो ! पुण्य से ऊँचे कर्म बँधते हैं । धन, कुटुम्ब, पुत्र, पत्नी, राज्य और अनेक विषय भोगों की सामग्री का लाभ एक पुण्य से ही होता है । इन्द्र पद, अहमिन्द्र पद, चक्रवर्ती पद और नारायण और प्रतिनारायण, कामदेव या तीर्थङ्कर का पद आदि महान-महान पद पुण्य से ही मिलते हैं। संसार में चर्चा होवे तब यह होती है । कहते हैं, यह पुण्य करो, पुण्य करने से ऐसी पदवी मिलेगी, ऐसी पदवी मिलेगी।
यहाँ आचार्य कहते हैं कि जो संसार के भोगों के लोभ से पुण्य को ग्रहण योग्य मानता है, वह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है । वह पुण्यभाव ग्रहण करने योग्य है, पुण्यभाव आदर करने योग्य है, पुण्यभाव ठीक है, भोग की इच्छा करनेवाले प्राणी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी हैं । कहो, रतनलालजी ! 1 या नहीं ? श्लोक मे है, देखो ! मुमुक्षु : पुण्य और पाप को एक तथ्य कर डाला । उत्तर : पुण्य और पाप एक हो गये, आस्रव ।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पाप की तरह पुण्य को भी बन्धन जानता है ... आहा... हा...! श्रद्धा का ठिकाना नहीं, ज्ञान का ठिकाना नहीं, उसे धर्म कहाँ से होगा ? आहा... हा...! कहो, समझ में आया ? वे पुण्य को भी पाप कहते हैं । पुण्य को भी बन्धन जानते हैं और पुण्य को भी पाप कहते हैं । धर्मी तो पुण्य को भी बन्धन जानते हैं तो बन्धन के कारण से उसे पाप कहते हैं। जिससे संसार में रहना पड़े, जिसे भोगों में फंसना पड़े, वह स्वाधीनता घातक पुण्य भी पाप ही है । स्वाधीनता का घातक पुण्य भी पाप है। पुण्य स्वाधीनता का घातक है । आहा... हा...! यहाँ तो अभी पुण्य की मिठास (वेदते हैं) कि पैसा मिले और फिर देव होऊँगा और फिर धूल होऊँगा । है ? अरे...रे... ! अरे भगवान ! वह भी आत्मा है न! उल्टा पड़े तो भी वह है न ! तीर्थङ्कर का समझाया न समझे और अनन्त परीषह पड़े तो भी समकिती डगमगाए नहीं। इसमें दोनों ताकत हैं । आहा...हा...!