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________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) १७३ जिनोक्तिः आया। उसमें केवली कहते हैं ऐसा आया (छियासी में) जिनोक्तिः कहते हैं। जो इंदिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं। उसमें मुनि कहते हैं - ऐसा आया था। एक आत्मा का ही मनन कर एक्कलउ इन्द्रिय-रहियउ-मण-वय-काय-ति-सुद्धि। अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुं लहु पावहि सिव-सिद्धि॥८६॥ एकाकी इन्द्रिय रहित, करि योग त्रय शुद्ध। निज आत्म को जानकर, शीघ्र लहो शिवसुख॥ अन्वयार्थ – (एक्कलउ) एकाकी निर्ग्रन्थ होकर (इन्दिय रहियउ) पाँचों इन्द्रियों से विरक्त होकर (मण-वय-काय-ति-सुद्धि) मन-वचन-काय की शुद्धि से (तुहुँ अप्पा अप्पु मुणेहि) तू आत्मा के द्वारा आत्मा का मनन कर (सिव-सिद्धि लहु पावहि) मोक्ष की सिद्धि शीघ्र ही कर सकेगा। ८६ ! एक आत्मा का ही मनन कर। योगसार है न। एक्कलउ इन्द्रिय-रहियउ-मण-वय-काय-ति-सुद्धि। अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुं लहु पावहि सिव-सिद्धि॥८६॥ लहु और फुडु ऐसे बहुत शब्द आते हैं । अल्प काल में तेरी मुक्ति होगी, भगवान ! एकाकी... एक्कलउ का भाई ने जरा ऐसा अर्थ किया है, निर्ग्रन्थ होकर ऐसा। यहाँ तो गुणस्थान के भेद भी व्यवहार में जाते हैं। अपना अकेला स्वरूप चिदानन्द अभेद, बस! उसमें तू एकाकार हो जा। इन्द्रियों से विरक्त होकर... पाँच इन्द्रियों से विरक्त होकर, मन-वचन-काया की शुद्धि से तू आत्मा द्वारा आत्मा का मनन कर।ओहो...हो... ! आत्मा सम्पूर्ण पूर्ण
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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