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गाथा-७१
स्वर्ग मिला तो पुण्यभाव दु:ख है और (उसके फल में) स्वर्ग मिला वह भी दुख है। धूल में कहाँ सुख था? ओ...हो...हो... आत्मा में सुख है, यह बात अभी सुनते हैं। एक व्यक्ति कहता था। आत्मा में सुख है, आत्मा में सुख है यह कहाँ सुना था? आत्मा में सुख है। तुमने कहा था न? कल सायं किसी ने कहा था। उसने कहा था। ठीक! भाई ने कहा था, सच्ची बात है। उसने शाम को कहा था कि आत्मा में सुख है यह सुना ही पहली बार है। उन पुण्य-पाप के भाव में भी सुख नहीं है, उनके बन्धन में भी सुख नहीं है, उनके फल में भी सुख नहीं है।
भगवान केवलज्ञानी परमात्मा त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव की वाणी में हुकम आया है कि हे आत्मा ! आनन्द तेरे स्वरूप में है। पुण्य-पाप के भाव में आनन्द नहीं है, पुण्य-पाप से बन्धन पड़ता है, उनमें आनन्द नहीं है। यह तीर्थङ्करप्रकृति का बन्ध पड़े, उसमें आनन्द नहीं है, जिस भाव से तीर्थङ्करप्रकृति बँधती है, उस भाव में आनन्द नहीं है और प्रकृति का फल समवसरण मिले, उसमें आनन्द नहीं है। ऐसा कहते हैं। आहा..आहा... अद्भुत काम, भाई! ऐ... मांगीरामजी! बेचारे कितने ही साधु तो ऐसे धूज उठते हैं, हाँ! अरे.........! ऐसा मार्ग! मार्ग तो ऐसा है। मान या मत मान मार्ग दूसरा नहीं होता। आहा..हा...हा... ।
___ वास्तव में आत्मा और द्विधा करने का प्रयोजन है कि बन्ध के त्याग से शुद्ध आत्मा का ग्रहण करना... प्रथम शब्द लिया है, उस दिन वहाँ भटके थे। किस साल? (संवत २००२ साल) दूसरे साल। २० वर्ष हुए माघ महीने में साढ़े बीस वर्ष हुए। आहा...हा...हा... । व्याख्यान में गाथा ठीक यह २९५ वीं आई। उसमें आया... प्रथम क्या करना? धर्मदृष्टि करनेवाले को प्रथम क्या करना? प्रथम पुण्य-पाप का राग बन्धस्वरूप से भगवान आत्मा भिन्न है - ऐसा प्रथम पर से सर्वथा भेदज्ञान करना। सर्वथा पर से (भेदज्ञान करना) । सर्वथा (कहा है), कथञ्चित राग की मदद और कथञ्चित (ज्ञान की मदद) – ऐसा नहीं है। शशीभाई ! सर्वथा जैन शासन में होता है ? सर्वथा होता है? कथञ्चित् होता है। यहाँ तो (कहते हैं) सर्वथा छेदना। चिल्लाते हैं, अनेकान्त.... अनेकान्त है। सर्वथा छेदना, एक अंश लक्ष्य में रखना नहीं उसका नाम अनेकान्त है। विमलचन्दजी! लो, अब युवकों को बैठ जाता है न! उन्हें नहीं बैठता बड़े, उल्टे पढ़-पढ़कर पढ़े हैं।