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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण १०,
गाथा ८५ से ८६
बुधवार, दिनाङ्क १३-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३३
यह योगसार शास्त्र है। योगीन्द्रदेव दिगम्बर मुनि हो गये, उन्होंने यह योगसार स्वयं के सम्बोधन के लिए बनाया है – ऐसा अन्त में लिखा है। पहले ऐसा कहा है कि जो भव भ्रमण से भयभीत है, जिसे त्रास लगा है, उसके लिए मैं बनाता हूँ। फिर लिखा कि मैंने अपनी भावना के लिए, सम्बोधन के लिए बनाया है। अन्त में वह गाथा है। योगसार का अर्थ, देखो! यह ८५ (गाथा में) कहा। जहाँ चेतन वहाँ सकल गुण' यह पाठ है।
जहाँ चेतन तहाँ सकल गुण, केवली बोले ऐम।
प्रगट अनुभव आपनो, निर्मल करे सो प्रेम॥ आत्मा अनन्त गुण सम्पन्न एक वस्तु है, उसकी अन्तर्दृष्टि अनुभव करने से एक आत्मा के ग्रहण में उसमें अनन्त गुणों का ग्रहण हो जाता है। समझ में आया?
एक भगवान आत्मा एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में अनन्त गुणरूप एकरूप, अनन्त गुणरूप एकरूप (वस्तु है)। कितने अनन्त गुण? आकाश के प्रदेश हैं, उनसे अनन्तगुने गुण हैं । आहा...हा...! छह महीने और आठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्ति -परमात्मदशा को प्रवाह में प्राप्त होते हैं। छह महीने और आठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्ति (प्राप्त करते हैं)। अभी तक में जितने मुक्त हुए उनसे अनन्तगुने जीव निगोद के एक शरीर में हैं। ऐसे-ऐसे जीव सिद्ध से अनन्तगुने हैं, जीव से पुद्गल की संख्या अनन्तगुनी है, पुद्गल से तीन काल के समयों की संख्या अनन्तगुनी है, उनसे आकाश के प्रदेश की संख्या अनन्तगुनी है । आहा...हा...!
यह भगवान कहते हैं कि, अनन्त गुण है। दोष तो कोई गुण का अल्प दोष है। समझ में आया? अनन्त गुण में दोष नहीं है। किसी गुण की किसी पर्याय में अल्प दोष है । गुण