________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
१४७
यह तो भगवान का घर है, उसे जानने के लिए पुरुषार्थ की उग्रता चाहिए। आहा...हा... ! यह धर्म कोई साधारण चीज नहीं है, जिसके फलस्वरूप सादि अनन्त सिद्ध पद आनन्द प्रगट होता है। आहा...हा...! जिसके फल में सादि अनन्त... भूतकाल की पर्यायों से भविष्य की सादि-अनन्त अनन्तगनी पर्यायें हैं। संसार की पर्याय की संख्या से सिद्ध की पर्याय की संख्या अनन्तगुनी है। अनन्तगुनी... अनन्त... अनन्तगुनी है। आहा...हा... ! ऐसे आत्मा का अतीन्द्रिय आनन्दरूप जिसका फल, उस धर्म की क्या महत्ता! और वह धर्म जिसके आश्रय से प्रगट हो उस द्रव्य का क्या कहना!! समझ में आया?
कहते हैं, किसी का उपादान नहीं और किसी का निमित्त नहीं। वह भगवान ज्ञायक तो पिण्ड है न! अपने आत्मा में, द्रव्य में ऐसी शक्ति है। जब उस शक्ति की प्रतीति, ज्ञान हुआ तो सर्व गुणों की पर्यायों का परिणमन हुआ तो अकार्यकारण नामक गुण अकेला द्रव्य -गुण में नहीं रहा; पर्याय में भी अकार्यकारण (परिणमन आया)। द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों में व्याप्त हो गया। निर्मलानन्द भगवान की जो पर्याय है, उसकी जो दृष्टि हुई तब वह पर्याय किसी का कार्य नहीं और किसी का कारण नहीं । समझ में आया? समझने में इसे (ऐसा लगता है कि) यह क्या है ? मूल तो इसे अन्दर में स्वतन्त्रता की बात रुचती नहीं है, अनादि से पराधीन पंगु... पंगु... पंगु... (जैसा हो गया है)। भगवान पंगु समझते हो? आँखें ऐसी हों, हाथ-पैर ऐसे हों, शक्तिरहित ऐसे पंगु पड़े हों।
यह तो भगवान आत्मा सिंह, उसका एक-एक (गुण) ओ...हो...! समझ में आया? वह सिंह की लड़ाई की बात आयी थी, दो बाघ थे, बड़े बाघ! एक बाघ पर दूसरा बाघ चढ़ गया परन्तु बाघ ने मारा नहीं, इतना तो पशुओं में भी ख्याल है। ऊपर चढ़ बैठे फिर वह निकलने का था, तब ऐसे गर्दन कर ली, नीचे कर ली, हो गया, जाओ, वह कहे हारा, और यह कहे जीता। छोटाभाई ने कहा – यह कल समाचार पत्र में आया है। 'जैनदर्शन' में, 'जैन सन्देश' कल आया है न! उसमें है। है ?
मुमुक्षु : हार स्वीकार हो गयी।
उत्तर : हार स्वीकार हो गयी। पहले तो बहुत लड़े, बहुत लड़े। एक बाघिन थी, बैठी थी, देखती रही, बस! जैसे साक्षी हो ऐसे देखती। एक की बाघिन थी। दो ऐसे लड़े