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गाथा - ८४
अवश्य, हाँ! है सही, यह विषय छोड़ दे तो तीर्थ का नाश हो जाए। चौथा, पाँचवाँ, छठा पर्याय भेद भी न रहे । व्यवहार का विषय ही न हो, यह मिथ्या बात है । व्यवहारनय का विषय है (परन्तु ) आश्रय करने योग्य नहीं है।
मुमुक्षु : दोनों रखो।
उत्तर : दो किस प्रकार रखें ? आश्रय करने योग्य एक। दूसरी चीज जानने योग्य का अस्तित्व जानना। चौदह गुणस्थान, मार्गणास्थान सब है। नहीं है, ऐसा नहीं है । वह तो आश्रय करने योग्य नहीं है, इस अपेक्षा से व्यवहार कहकर अभूतार्थ कहा है । व्यवहार कहकर गौण करके (अभूतार्थ) कहा है, उसे गौण करके ( कहा है), उसका अभाव करके नहीं । (क्योंकि) पर्याय उसकी है। पर्याय को गौण करके, व्यवहार कहकर अर्थ इतना लेना। पर्याय को गौण करके व्यवहार कहकर, गौण करके व्यवहार कहकर अभूतार्थ कहा है। भगवान आत्मा एक समय में पूर्ण-पूर्ण मुख्य करके, निश्चय कहकर, उसे भूतार्थ कहा है। समझ में आया ? अभाव करके ( कहे तो ) पर्याय है ही नहीं - ऐसा हुआ । पर्याय का लक्ष्य छोड़ना है, इसलिए उसे गौण करना परन्तु है ही नहीं ऐसा है ? पर्याय है ही नहीं ? परिणमन है ही नहीं ? गुणस्थान है ही नहीं ? (यदि ऐसा होवे तो) वस्तु का नाश हो जायेगा । सम्यग्दर्शन - ज्ञान और चारित्र वह यह मोक्षमार्ग और यह सब पर्याय हैं, चौथा, पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, तेरहवाँ (गुणस्थान) यह सब क्या है ? यह तो सब पर्याय है । पर्याय नहीं ? है, परन्तु उसमें अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । प्रयोजन सिद्ध करने के लिए पर्याय के भेद को गौण करके; अभाव करके नहीं (किन्तु ) गौण करके व्यवहार कहा है और व्यवहार कहकर अभूतार्थ कहा है। भगवान आत्मा का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए एकरूप निश्चय मुख्य नहीं; मुख्य त्रिकाल मुख्य वस्तु को निश्चय कहकर, अभेद करके उसे भूतार्थ कहा है । वस्तु यथार्थ, यथार्थ, यथार्थ.... आहा...! समझ में आया ? ऐसी वस्तु सर्वज्ञ के सिवाय तीन काल में दूसरे किसी स्थान में नहीं है। वेदान्त भले बड़ी-बड़ी बात करे कि आत्मा ऐसा है, आत्मा ऐसा है; सब मिथ्या बात है, सब विपरीत बात है। समझ में आया ? यहाँ निश्चय की बात करते हैं, इसलिए वेदान्त के साथ मिल जाता है - ऐसा नहीं है ।
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