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रत्नत्रय का स्वरूप दंसणु जं पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महतु। पुणु पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्तु ॥ ८४॥
दर्शन सो निज देखना, ज्ञान जो विमल महान।
पुनि-पुनि आतम भावना, सो चारित्र प्रमाण॥ अन्वयार्थ - (अप्पा विम महंतु ) यह आत्मा मल रहित शुद्ध व महान परमात्मा है (जं पिच्छियइ बुह दंसणु) ऐसा जो श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है व ऐसा जानना सो ज्ञान है (पुणु पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्र) बारबार इस आत्मा की भावना करनी सो पवित्र या निश्चय शुद्ध चारित्र है।
वीर संवत २४९२, आषाढ़ कष्ण ९,
गाथा ८४ से ८५
मंगलवार, दिनाङ्क १२-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३२
यह योगसार चलता है, इसकी ८४ वीं गाथा। दंसणु जं पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महतु।
पुणु पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्तु ॥८४॥
भगवान योगीन्द्रदेव, जङ्गलवासी दिगम्बर आचार्य थे चौदह सौ वर्ष पहले (हुए)। इन्होंने यह एक परमात्मप्रकाश और एक यह अमृताशीति आदि बनाये हैं। अपने यहाँ दो प्रसिद्धि में हैं । यह योगसार है। योगसार का अर्थ – अपना शुद्धस्वरूप, एकरूप पवित्र है। इसमें एकाकार होकर. योग अर्थात जडान करके सार अर्थात निर्विकल्पदष्टि, ज्ञान और रमणता करने का नाम योगसार – मोक्षमार्ग कहते हैं। यहाँ तो सब सार ही है। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, योगसार – सन्तों ने सब सार-सार ही