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योगसार प्रवचन (भाग-२)
१३ नहीं वहाँ अनन्त बार, वह शुभभाव है, हाँ शुभभाव है। आत्मा के स्वभाव से पतित होता है, इसलिए पाप है।
'बुह'शब्द पढ़ा है न? देखो ! बुध - बुह। ज्ञानी उसे पाप कहते हैं – मूल पाठ में तो ऐसा कहते हैं। अज्ञानी, पाप को पाप तो सब कोई कहते हैं परन्तु ज्ञानी पुण्य को भी पाप कहते हैं क्योंकि उससे आत्मा का कल्याण नहीं होता। आहा...हा...! यह तो 'योगीन्द्रदेव' दिगम्बर मुनि ८०० वर्ष पहले भरतक्षेत्र में हुए हैं । यह अभी का कथन नहीं है, पहले का पाठ है।
मुमुक्षु : यात्रा करने नहीं जाना?
उत्तर : जाने, नहीं जाने की (बात नहीं है), वह शुभभाव हो, परन्तु वह शुभ पुण्य बन्धन है, उसे पुण्य गिनना और निश्चय से उसे पाप गिनना । व्यवहार से पुण्य, निश्चय से पाप । लो! आहा...हा... ! बहुत कड़क। वे कहते हैं – भगवान के दर्शन करे तो मोक्ष हो जायेगा। हे प्रभु! शिवपद हमको देना। देना, देना रे महाराज! शिवपद हमको देना। वहाँ भगवान के पास तेरा शिवपद होगा?
मुमुक्षु : वह भगवान के पास नहीं होगा तो कहाँ होगा?
उत्तर : इस भगवान के पास है, निज भगवान के पास अपना शिवपद है, अन्तर में शिवपद पड़ा है। बाहर से आनेवाली चीज कहाँ है? भगवान कहाँ देते हैं ? और भगवान की भक्ति से क्या मिलता है ? पुण्य होता है, शुभभाव होता है। पाप से बचने के लिए शुभभाव होता है। निश्चय से अपना स्वरूप अमृत है। भगवान अमृतस्वरूप है। पुण्य में आना, वह भी अपने स्वरूप से पतित होता है, इस अपेक्षा से ज्ञानी पुण्य को पाप कहते हैं। अज्ञानी को मीठा लगता है, इसलिए उसकी भाषा में मीठा कहते हैं। मीठा किसका? पुण्य का फल जहर है। पुण्य का भाव स्वयं जहर है और उसके फल संयोग मिले और धूल मिले - स्त्री, पुत्र, पैसा मिले, उसमें क्या फल है? वह तो परवस्तु है। पर में कहाँ आत्मा आया? उसका लक्ष्य करके भोग लेना, वह तो राग है, वह तो अशुभराग है। वह अशुभराग तो पाप है ही, जहर है ही। आहा...हा...! परन्तु पुण्य भाव भी जहर है, पाप है – ऐसा ज्ञानी कहते हैं। आहा...हा...! कितने ही तो मुनि