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अनुभव चिन्तामणि रतन, अनुभव है रसकूप । अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्षस्वरूप ॥
गाथा - ८२
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय शान्तरस के चैतन्य रत्नाकर पर दृष्टि करके अन्दर आत्मा का अनुभव करना, वह ही एक रोग मिटाने का उपाय है। समझ में आया ? कोई क्रियाकाण्ड करना, वह रोग (मिटाने का उपाय नहीं है)। क्रियाकाण्ड का राग है, वह स्वयं ही रोग है । आहा... हा... ! समझ में आया ? शुद्धात्मानुभव ही एक..... देखा ? शुद्ध हैन ? विकार तो अशुद्ध है।
यह सम्यग्दृष्टि समय निकाल कर स्वानुभव करता रहता है । देखो ! धर्मी जीव चाहे जितने व्यापार धन्धे में पड़ा हो, उसमें से समय निकालकर अपनी आत्मा को स्पर्श कर लेता है । आहा... हा...! समझ में आया ? समय निकालकर अपने आत्मा में अन्दर नजर करके अनुभव कर लेता है । आहा... हा...!
मुमुक्षु : आज कल तो समय निकालने का समय ही नहीं मिलता ।
उत्तर : सदा समय ही है। क्या समय ले ? सदा समय ही है। समय निकाले नहीं तो उसमें क्या करना ? आत्मा निवृत्त ही है, राग से और पर से सदा निवृत्त ही है और निवृत्त है, उसे प्रवृत्तिवाला मानना वही दृष्टि में भ्रम है । आहा... हा...! कहो, कुछ समझ में आया ?
कषाय के अनुभाग को सूखाते रहते हैं... वह तो सूख जाता है, ठीक । स्थिरता करते-करते इतना आनन्द आ जाता है कि आत्मरस में मानो कि उन्मत्त हो जाए, तब बाह्य सकल त्याग करके संन्यासी अथवा निर्ग्रन्थ हो जाता है। लो ! अन्तर आनन्द में धर्मी जीव गृहस्थदशा में हो तो भी राग, विकल्प, बाह्य संयोग आदि का स्वामीपना नहीं है, इस अपेक्षा से उनका त्यागी ही है परन्तु अभी अस्थिरता का राग है तो उसे रोग जानता है; अतः समय निकालकर राग से रहित अपना स्वरूप शुद्ध चैतन्य है, उसका अन्तर में स्पर्श करके वेदन कर देता है । आत्मा का स्पर्श करके अनुभव कर लेता है । इतनी संवर और निर्जरा, शुद्धि की वृद्धि होती है। समझ में आया ? जितनी शुद्धि कायम है, उतना संवर-निर्जरा तो है ही परन्तु अन्तर का अनुभव करे तो विशेष शुद्धि होती है और विशेष आनन्द आते-आते बाह्य की आशक्ति में कुछ नहीं रुचता, धन्धे - पानी में कहीं वृत्तिको