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गाथा - ८०
-उतरना, कूदना, पढ़ना, खेलना, गाना, बजाना इत्यादि समस्त क्रियाएँ - यह सर्व पुद्गल का खेल जान ।
मुमुक्षु : खाना नहीं आया ?
उत्तर : आया न ! क्या नहीं आया ? खाना नहीं आया ? यह आया देखो ! नर, नारक, तिर्यञ्च, देव, उनका वैभव, भोग-करण, विषयरूप इन्द्रियों की क्रिया आदि सर्व पुद्गल का नाटक है। लो, पुद्गल का खेल है। यह हिले चले, वाणी निकले, व्यापार-धन्धा यह तो जड़ की क्रिया है। आत्मा उसे करे ? दीपचन्दजी ने बनाया है। समझ में आया ? ...आदि समस्त पुद्गल का अखाड़ा है । यह सर्व इन्द्रियादि, क्रिया आदि पुद्गल नाटक है । द्रव्यकर्म, नोकर्म आदि सर्व पुद्गल का अखाड़ा है । उसमें तू चिदानन्द रञ्जित होकर अपना जानता है । अपने दर्शन - ज्ञान - चारित्रादि अनन्त गुण के अखाड़े में परिणति पात्र नाचते हैं, स्वरूपरस उपजाते हैं । जितने गुण हैं, उतने को वेदते हैं, सर्व भाव ( -स्वरूप ) सत्ता... यह फिर दूसरा लिया है। यह सब पुद्गल के खेल हैं । यह पकाना - खाना, यह चूल्हा होना, अग्नि जलना, पानी छनना, यह सब जड़ की क्रिया, पुद्गल का नाटक है।
मुमुक्षु: किये बिना रोटियाँ होती हैं ?
उत्तर : धूल भी नहीं करता। कौन करे ? उसमें उसे राग-द्वेष होता है, बस ! कुछ करता नहीं। कौन करे ? (पृष्ठ-३५) इस प्रकार देह जड़ है। उसके भोग को तू अपने रूप मानकर झूठ ही जड़ की क्रिया को किसलिए अपनी मानता है ? लो ! जैसे किसी को सर्प काटे (और) किसी दूसरे को जहर चढ़े तो अचरज मानते हैं। (वैसे ही ) जड़ खाये, पहने, स्नान, तेल मर्दन आदि क्रिया करे ( वहाँ ) तू कहता है कि मैंने खाया, मैंने भोगा... मैंने खाया, मैंने पिया, मैंने भोग किया, वह तो जड़ की क्रिया है । आहाहा... ! ये माने, वे माने नहीं। यह बीमार, बीमार है, बीमार मिथ्यात्व से बीमार रोगी
हो गया है, रोगी । देखो न ! यह एक दीपचन्दजी जैसे गृहस्थाश्रम में (रहते थे), जिन्होंने
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'अनुभवप्रकाश' बनाया, 'आत्मावलोकन' बनाया, 'चिदविलास' बनाया। महासाधर्मी, सम्यग्ज्ञानी साधर्मी हो गये हैं ।