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गाथा-७०
भूमिका मेरी है। जितने रागादि उत्पन्न होते हैं, वह मेरी भूमिका नहीं है। मेरे स्थिरता की वह जगह नहीं है। आहा...हा...! बाहर तो स्थिरता करने का नहीं है, अन्दर में भी दया, दान, व्रत, भक्ति के तप के भाव आते हैं, उसमें ठहरने की भूमिका नहीं है; वह तो उसमें से निकलने की भूमि है। अपना शुद्धस्वरूप ज्ञानभगवान, जिसमें महान परम शान्ति और आनन्द भरा है। ऐसे प्रभु आत्मा में रुचि-दृष्टि करके उसे स्थिरता की भूमि जानकर उसमें स्थिरता करना, वह स्वयं से अकेले से होती है (उसमें) किसी की सहायता-मदद नहीं है। ओहो... ! (सब ओर से) राग उठा ले।
केवल अपने ही ज्ञानस्वरूपी आत्मा के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को अपना जानकर उसमें ही परम रुचिवान हो जा।
अब इसका खुलासा करेंगे, हाँ! उसका ही प्रेमी हो जा, उसमें ही मग्न रहने का, उसके ही ध्यान का अभ्यास कर, आत्मा का रस पीने का उद्यम कर.. बाद में खुलासा करेंगे। मेरा आत्मा अखण्ड अभेद एक द्रव्य है। देखो, यह द्रव्य। मैं अभेद अखण्ड पदार्थ आत्मा हूँ, वह मेरा द्रव्य / वस्तु । द्रव्य अर्थात् पैसा? ऐ...इ...! असंख्यात प्रदेशी क्षेत्र है... असंख्य प्रदेश, वह मेरा क्षेत्र है; बाहर के मकान, मकान का क्षेत्र (मेरा नहीं है)। राणपुर' का क्षेत्र, 'इन्दौर' का क्षेत्र, 'लाडनू' का क्षेत्र...! रतनलालजी ! यह क्षेत्र किसका है? वह तो पर का है, अपना क्षेत्र असंख्य प्रदेश है। असंख्य प्रदेश अपना क्षेत्र है। अपना अखण्ड द्रव्य वह अपना द्रव्य है।
और समय परिणमन काल है। अपनी एक समय की परिणमन दशा वह अपना काल है। दिवस, पहर, रात्रि, वह कोई अपना काल नहीं है। समझ में आया? द्रव्य की अपनी वर्तमान परिणति – अवस्था, एक समय की दशा, वह अपना काल है; दूसरा अपना काल नहीं है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि शुद्धभाव हैं... द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव लिये। मुझमें ज्ञान-दर्शन आनन्दादि त्रिकालभाव हैं। वह शुद्धभाव मेरा भाव है। शुद्धभाव मेरा भाव है, वर्तमान अवस्था मेरा काल है; असंख्य प्रदेश मेरा क्षेत्र है, अखण्ड द्रव्य मै वस्तु हूँ, समझ में आया? यही मेरा सर्वस्व है। लो, कर्म-संयोग से होनेवाले राग, द्वेष, मोह, भाव सङ्कल्प-विकल्प-विभाव मतिज्ञानादि चार ज्ञान आदि सब