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________________ ९६ गाथा - १४ कितनी गाथा चलती है यह ? चौदहवीं, आहा... हा... ! चौदहवाँ, चौदहवाँ... चौदहवीं गाथा चलती है, हाँ! तुहुं तह तू – उन भावहु परियाणि उस भाव की तू पहचान कर कहते हैं। समझ में आया ? देखो! पहचान कर ऐसा कहते हैं । जिस परिणाम से आत्मा के स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान और शान्ति (होती है), उसे जान और जो परसन्मुख के परिणाम होते हैं, उसे जान। दोनों को जानने का कहा है। जान सकता होगा, तब कहा है या जाने बिना ? समझ में आया? सम्यक्त्वी को भी जितने परिणाम हिंसा के, विषय के, काम-क्रोध के परिणाम आते हैं, अरे...! दया, दान, भक्ति भी आती है, उसे तू बंध का कारण जान - ऐसा कहते हैं। उसे तू बंध का कारण जान - ऐसा जान । — मुमुक्षु आज्ञा करते हैं। उत्तर - हाँ, विजाण । पहचान कर, पहचान । तह भावहु परियाणि परियाणि शब्द है फिर देखो ! आहा... हा... ! समझ में आया ? अरे...! ज्ञान क्या नहीं जाने ? चैतन्य ज्योत तीन काल-तीन लोक को जानने की ताकतवाला तत्त्व, वह साधक स्वभाव और बाधक के परिणाम को क्यों नहीं जानेगा ? समझ में आया ? भगवान आत्मा के ज्ञान की एक समय की दशा, जिसे तीन काल तीन-लोक एक समय की पर्याय में समा गये हैं, उसे जानने से तीन काल-तीन लोक ज्ञात हो जाते हैं। ऐसी ज्ञान की दशा, उस साधकपने में स्वसन्मुख के परिणाम और परसन्मुख के परिणाम, उन्हें भलीभाँति जान सकती है । कहो, इसमें समझ में आया ? फिर समकिती हो या मिथ्यात्वी हो । शुभपरिणाम से समकिती को भी बंध है और आत्मा के शुद्धस्वभावसन्मुख शुद्धभाव से समकित को संवर और निर्जरा है। इस प्रकार तू जान । दूसरा है नहीं । यह तो भाई ! जिसे जन्म-मरण से.... हैं ! जन्म-मरण से रहित होना हो, उसके लिये बात है)। यह चार गति में धक्का खाना हो तो.... यह तो अनन्त काल से खाता है । मर गया, उसमें क्या है धूल में? समझ में आया ? एक भव में से दूसरे भव में, दूसरे भव में से, तीसरे भव में.... देखो, भटका भटक करता है या नहीं ? हैं ! आत्मा तो अनादि का है । यह शरीर इस आत्मा के साथ कहीं अनादि का है ? यह शरीर दूसरा था, इसके पहले
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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