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________________ योगसार प्रवचन ( भाग - १ ) ९५ मुमुक्षु • समकिती को तो परपदार्थ से लाभ है। उत्तर - धूल में भी लाभ नहीं होता । लाभ किसे होता है ? - चारित्र अपेक्षा से, श्रद्धा अपेक्षा से तो लाभ हुआ । मुमुक्षु उत्तर - चारित्र, चारित्र स्वरूप में रमणता, वह चारित्र है । पर से लाभ होता है ? समझ में आया ? इउ जाणेविणु जीव देखो ! वियाणि कहा न ? मोक्ख वि तह जि जान । भगवान आत्मा के पूर्णानन्द के शुद्ध मुक्ति के परिणाम, वह शुद्ध है । उस परिणाम से ही मुक्ति है - ऐसा तू जान । किसी निमित्त से और क्रियाकाण्ड से मुक्ति नहीं है । व्रतादि के परिणाम बंध का कारण है; मुक्ति का कारण नहीं - ऐसा जान । जान ऐसा नहीं परन्तु वि-जान । समझ में आया ? इउ जाणेविणु जीव उसे जानकर हे आत्मन्! ऐसा समझकर तू उन भावों को पहचान..... दोनों भाव की, हाँ ! दोनों भाव की ( पहचान कर ) । परसन्मुखता के परिणाम का ज्ञान कर और स्वसन्मुख के परिणाम का ज्ञान कर। मुमुक्षु - वे परिणाम पहचाने जाते होंगे। उत्तर – यह क्या कहते हैं ? जानने का यह क्या कहा ? मुमुक्षु - इस काल में ज्ञात नहीं होते । उत्तर - ले, इस काल में ज्ञात नहीं होते तो यह बात किससे करते हैं ? आत्मा भगवान पूर्णानन्द का नाथ, उसके सन्मुख के परिणाम को जान और उससे विमुख जितने परिणाम होते हैं, उन्हें जान - ऐसा सम्यग्दृष्टि को कहते हैं। समझ में आया ? ज्ञान तो दोनों का करना है कि यह जितने परिणाम शुद्धस्वभाव की सन्मुख के, इच्छारहित के, शुद्धोपयोग के, शुद्ध सम्यग्दर्शन के, ज्ञान के, शान्ति के, वे ही परिणाम अकेले मुक्ति का अथवा संवर, निर्जरारूप है और मुक्ति का कारण है। संवर, निर्जरा, वह परिणाम है। जितने परसन्मुख के परिणाम (होते हैं), वह आस्रव और बंधरूप है, वह आत्मा को हितकर नहीं है ऐसा विजाण... ऐसा ज्ञान कर। समझ में आया ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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