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________________ ६६ गाथा-१० आचरण – भाव उत्पन्न होता है, वह भी वास्तव में बहिर्भाव है, क्योंकि अन्तर स्वभाव में नहीं है और अन्तर स्वभाव में रहता नहीं है। समझ में आया? अन्तर स्वभाव में है नहीं और अन्तर स्वभाव में शुद्ध चिदानन्द की मूर्ति भगवान आत्मा है, उसमें यह दया, दान, व्रतादि के परिणाम शुभविकल्प या ज्ञानाचार-दर्शनाचार के परिणाम वह विभाव है। वह ज्ञानानन्दस्वरूप में नहीं है तथा उस ज्ञानानन्द की पूर्ण प्राप्ति हो, तब वह रहते नहीं हैं; इसलिए उसकी चीज नहीं है। समझ में आया? आहा...हा...! देहादिउ जे ऐसा प्रयोग किया है न? भगवान एक ओर रह गया। एक समय में अखण्ड आनन्दकन्द अभेद चिदानन्द की मूर्ति, उसे आत्मारूप से जाने, तब तो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन हुआ, वह तो जैसा जिसका स्वभाव, उस प्रकार उसका स्वीकार... और ऐसा आत्मा न मानकर, उस आत्मा से बाह्य चीजें जो विकल्पादि उत्पन्न होते हैं, जो उसमें नहीं है, उत्पन्न हों, फिर भी उसके स्वभाव में नहीं रहते और उसके स्वभाव को साधनरूप से मदद नहीं करते हैं। समझ में आया? आहा...हा...! दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा – ऐसा विकल्प शुभ है, वह वास्तव में बहिर्भाव है, विभाव है। पंच महाव्रत के परिणाम – अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, यह भी एक विकल्प, विभाव है। यह उसका स्वरूप नहीं है। उस विभाव को स्वभाव माने या विभाव को स्वभाव का साधन माने या विभाव मेरी चीज में है ऐसा माने, (वह बहिरात्मा है)। समझ में आया? शान्तिभाई ! क्या होगा यह ? अद्भुत....! कहो, समझ में आया? यह पुण्यपरिणाम और पुण्य का फल, शुभभाव इससे बँधा पुण्य, यह उसके फलरूप से तुम्हें यह हजार (रुपये) वेतन मिलता है, यह तीनों मुझे मिलते हैं – ऐसा मानना, वह मूढ़ है, ऐसा यहाँ कहते हैं। भाई ! इसे शेयर मार्केट में एक हजार वेतन मिलता है। यह आया था, निवृत्ति लेकर आता है। यह तो पुण्य के परमाणु और पुण्य का भाव और उसके फल की बाहर की विचित्रता देखो, यह एकदम बढ़ा – ऐसा माननेवाला मूढ़ है। यह कहते हैं। रतिभाई! आहा...हा...! ऐ...ई...! लक्ष्मी और अधिकार बढ़ने से क्या बढ़ा? क्या परिवार या परिवार से.... यह बढ़ा तो तू बढ़ा? या गुमढ़ा बढ़ा । गुमढ़ा समझते हो? फोड़ा... फोड़ा.... होता है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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