________________
६०
गाथा-९
वह बुद्ध नहीं। बुद्ध अर्थात् स्व-पर के तत्त्व को भेद डालकर जाने, उसे बुद्ध कहते हैं। परमात्मा अपने स्वरूप को पूर्णरूप जानते हैं, इसके अतिरिक्त लोकालोक है, उसे वे जानते हैं । स्व-पर के जाननेवाले, वे सर्वज्ञ भगवान परमेश्वर तीर्थंकर या सिद्ध भगवान उन्हें यहाँ शुद्ध कहा गया है। दूसरे बौद्ध जो देव हैं, वे बुद्ध नहीं। वह तो अज्ञानी था, क्षणिक को माननेवाला था।
यह तो भगवान परमेश्वर, जो स्व-पर तत्त्व को समझनेवाला – स्व परमात्मा मैं - ऐसा केवलज्ञान में ज्ञान है और यह सब मुझसे पर है – ऐसा उनमें ज्ञान है। दोनों चीज का पूरा-सम्पूर्ण ज्ञान है, उसे बुद्ध कहा जाता है। अन्य तो कहते हैं कि आत्मा त्रिकाल है या नहीं? यह मैं नहीं कहता, यह हम नहीं कहते। आत्मा नित्य है या नहीं? यह अपने को पता नहीं पड़ता। इस काम में पड़ना नहीं। कहो, ठीक! त्रिकाल शाश्वत् है, इस काम में पड़ना नहीं! ऐसी जाति की दृष्टि घुट गयी, दृष्टि घुट गयी। वह मनुष्य को राजा का कुँवर था। राजकुमार परन्तु वैराग्य से आया हुआ, बाहर से दुःखी.... दरिद्र दुःख और दरिद्र और मरण वह इनके दुःख से ऐसा.... अन्दर अस्तित्व पूरा कौन है ? उस पर लक्ष्य गया नहीं और वहीं का वहीं मर गया, देह छूट गया। समझ में आया?
'सिव' लो, 'सिव'। ऐसे परमेश्वर को शिव कहते हैं जिन्होंने राग-द्वेषरहित, शरीररहित पूर्ण शुद्धदशा प्रगट की है, उन्हें शिव कहते हैं । शिव अर्थात् परम कल्याणकारी। परम कल्याणकारी । वह परम कल्याण करनेवाला स्वयं परमात्मा को कहते हैं। उन्होंने स्वयं का पूर्ण स्वरूप, पूर्ण कल्याणमय प्रगट किया। सिव'.... णमोत्थुणम में आता है - शिव आता है न? शिव 'सिवमलयमरुयमणंत' शिवम्, अलयम, अरुयं, ऐसा शब्द है। 'अचलम्अरुयम्' रोगरहित ऐसे परमात्मा को विष्णु कहते हैं, उन्हें बुद्ध कहते हैं, उन्हें जिन कहते हैं, उन्हें शिव कहते हैं - ऐसी दशा प्रगटी हो उन्हें । हैं? समझ में आया? परम कल्याणकारी।
'संत' शान्त, वीतराग। परम शान्त वीतराग, परम अकषाय परिणमन से. पर्ण अकषाय परिणमन से भगवान परमात्मा को अकेली शान्तरस की पूर्ण धारा वीतरागरूप परिणमित हो गयी है। शान्त... शान्त... शान्त... शीतल स्वभाव जिनका, वीतरागी अकषाय