SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० गाथा-८ व्याख्या ! इस जगत में उसे पण्डित कहते हैं, उसे शूरवीर कहते हैं, उसे वीर कहते हैं... समझ में आया ? कि जिसने आत्मा के पूर्ण स्वरूप अखण्डानन्द को जाना और उससे भिन्न विकार और पर आदि वस्तु को जाना कि यह है। दोनों के बीच में जिसे भेदज्ञान हुआ है.... समझ में आया ? वह ‘परभाव चएइ' वह अपना शुद्ध स्वभाव, परमानन्द के आश्रय से भिन्न परवस्तु, उसके उत्पन्न हुए भाव का आदर नहीं करता अर्थात् उन्हें छोड़ता है । वह व्यवहार, विकल्प को भी यहाँ छोड़ता है । अन्तर परमात्मा के स्वरूप को जानता हुआ, पर आदि के स्वरूप को जानता हुआ ... जानने का तो दोनों का कहा, फिर स्वभाव को जानता हुआ आश्रय करता हुआ विकारादि परिणाम को छोड़ता हुआ, छोड़कर । 'सो पंडिउ' ! लो कम ज्ञान हो, अधिक हो, उसके साथ सम्बन्ध नहीं है । उसे पण्डित कहा जाता है। समझ में आया ? वह ग्यारह अंग पड़ा हो या न पड़ा हो, प्रश्न उत्तर देना आवे या न आवे उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरे को समझाना आवे या न आवे उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है; मात्र चैतन्यानन्द प्रभु पूर्णानन्द का नाथ स्वभाव परमात्मा मेरा, उसे जाना, उससे विपरीत जितना पुण्य-पाप, विकार, कर्म की सामग्री आदि जाना कि यह पर है । उस स्वभाव का आदर करके पर का आदर नहीं करता, उसने परभाव को दृष्टि में छोड़ा है। देखो ! यह त्याग हो गया। इस त्याग के बिना आगे त्याग उसका बढ़ता नहीं। समझ में आया ? अन्तर स्वभाव के आश्रय के अवलम्बन बिना पर का · राग का त्याग नहीं होता और उस राग के त्याग बिना उसे दूसरा त्याग सच्चा नहीं होता । समझ में आया ? - अन्तरात्मा, पण्डित, शूरवीर, वीर, भेदज्ञानी, लघुनन्दन... समझ में आया ? वह परमात्मा का लघुनन्दन है। कहते हैं कि उसका कार्य क्या ? अपने पूर्ण स्वरूप शुद्ध आनन्द को जाना और उसका अनुभव किया कि यही आत्मा; इसके अतिरिक्त शुभ अशुभराग, दया, दान, व्रत के परिणाम ये सब परभाव हैं। ऐसा जिसे दृष्टि में से छूट गये हैं, दृष्टि में जिसका त्याग वर्तता है, दृष्टि में जिसके त्रिकाल स्वभाव का आदर वर्तता है। समझ में आया? उसे वास्तव में परभाव का त्यागी ( कहते हैं) । यही कहा है न ? वह परभाव का त्याग करता है । उसे वास्तव में परभाव का त्याग है । उसे त्यागी कहा जाता है। इसमें समझ में आया ? T
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy