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________________ ४८४ गाथा - ६८ जाणिव ) उत्तम मुनि अपने को अशरण जानकर ( अप्पा अप्प मुणंति) अपने आत्मा द्वारा आत्मा का अनुभव करते हैं । ✰✰✰ संसार में कोई अपना नहीं है । लो, ६८ ! इंद - फणिदं - रिंद वि जीवहं सरणु ण होंति । असर जाणिव मुणि- -धवला अप्पा अप्प मुणंति ॥ ६८ ॥ योगीन्द्रदेव! दिगम्बर सन्त ८०० वर्ष पहले इस भरत क्षेत्र में हुए । महामुनि सन्त आत्मध्यानी, आत्मज्ञानी, आनन्द में लीन ( मुनि) पुकार करते हैं, वाणी द्वारा जगत को आवाज करके कहते हैं । अरे... जीवों ! 'इंद- फणिदं णरिंदय' इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती कोई भी संसारी प्राणियों का रक्षक नहीं हो सकता । कोई रक्षक है नहीं । तेरा रक्षक तो अन्दर आनन्दस्वरूप आत्मा तेरा रक्षक है। भगवान आत्मा रक्षक है। भाई ! स्त्री होवे अच्छे-बुरे (समय में) काम आवे । नंगे, भूखे, ढँके, (घर की नाजुक स्थिति) ढँके यह सब स्त्रियाँ ही करती हैं - ऐसा लोग बातें करते हैं। घर की स्त्री हो तो उघाड़े वस्त्र ढाँ (अर्थात् घर की खराब स्थिति बाहर में प्रगट न होने दे।) दूसरा कोई ऐसा करे ? परन्तु पचास वर्ष में भी विवाह किया तो क्या करना तब, . लो एक व्यक्ति ऐसा कहता है परन्तु क्या करना तब हमें ? घर के लड़के मानते नहीं, लड़कों की बहुएँ देखती नहीं, नजदीक आ नहीं सकती, घर की स्त्री हो तो नंगे, भूखे ढंके..... विषय का लोलुपी होकर ऐसा कहता है ऐसा कह न! समझ में आया ? विषय का लोलुपी है, उसके लिए तू यह बचाव करता है । पचास वर्ष में अभी स्त्री करना है (विवाह करना है) फिर बचाव करता है। नौकर अच्छा होवे तो स्त्री से भी अच्छा काम करता है, तुझे भान कहाँ है ? समझ में आया ? पैसा खर्च करना नहीं और स्त्री के भोग की रुचि (तुझे ) छोड़ना नहीं है । — यहाँ भोग की रुचि की बात है, हाँ ! आत्मा के आनन्द की रुचि के समक्ष इन्द्रिय के विषय की रुचि ज्ञानी को नहीं होती है और इसलिए विषय की रुचि में निमित्तकारण है, उनके प्रति भी एकत्वबुद्धि धर्मी को नहीं होती है - ऐसा कहना है। समझ में आया ?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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