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योगसार प्रवचन (भाग-१)
मुमुक्षु – बाहर लाठी मारता है न?
उत्तर – लाठी मारता है। ठीक! विकल्प खड़ा करता है, यह अच्छा, हाँ! यह अच्छा। दूसरे के लड़के होंगे परन्तु मेरा लड़का अलग प्रकार का - ऐसा मानता है। दूसरों के लड़के होंगे परन्तु मेरा लड़का ‘महासुख'! ओहो...हो... ! आज्ञाकारी... बापूजी... बापूजी... बापूजी... बापूजी... करे वहाँ (उत्साह चढ़ता है)। दूसरों के लड़के होंगे परन्तु मेरे (दूसरे प्रकार के हैं)। दूसरों की स्त्री भले होगी परन्तु मेरे घर में सीधी-सादी स्त्री... एक कहता था, यह सब सनी हई बात है कि दसरे भले कहते हों मेरे घर में पत्नी सीधी-सादी है, उसके विरुद्ध होकर मैं कुछ दूसरा करूँ? बेचारी ऐसे ऊँची (आँख नहीं) करे, ऐसी पत्नी है। कहा, अद्भुत यह तो... ! मेरे घर की स्त्री ऐसी नरम... ऐसी नरम... ऐसी सीधी-सादी कि किसी दिन ऊँची आवाज नहीं, इसलिए उसकी अनुकूलता छोडकर मैं कुछ प्रतिकूल करूँ? चन्दभाई! अरे! परन्तु यह आत्मा महा अनुकूल पड़ा है इसे छोड़कर तू (बाहर में) अनुकूलता माने तो तेरा भ्रम है। अन्दर कहना तो यह चाहते हैं। परिवार का मोह छोड़ - इसका अर्थ वह दृष्टि छोड़ दे। आसक्ति तो होती है परन्तु अन्दर रुचि तो छोड़ दे और यह मुझे विषय के सहकारी कारण हैं, इसलिए मोह करना, यह छोड़ दे। ये सहकारी सुख के नहीं, दु:ख के हैं। आत्मा के आनन्द के कोई सहकारी नहीं है। समझ में आया? आहा...हा...!
संसार में कोई अपना नहीं है इंद-फणिदं-णरिंदय वि जीवहं सरणु ण होति। असरणु जाणिवि मुणि-धवला अप्पा अप्प मुणंति॥६८॥
इन्द्र, फणीन्द्र, नरेन्द्र भी, नहीं शरण दातार।
मुनिवर अशरण' जानके, निज रूप वेदत सार॥ अन्वयार्थ – (इंद-फणिंद-णरिंदय वि जीवहं सरणुण होंति ) इन्द्र, धरणेन्द्र, व चक्रवर्ती कोई भी संसारी प्राणियों के रक्षक नहीं हो सकते (मुणि-धवला असरणु