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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
आड़ा-अवला उसमें कुछ है नहीं । कहो, समझ में आया ? एक (समयसार की) गाथा दी है, फिर सार - समुच्चय का कहा है।
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इस भयानक व नाना प्रकार के दुःखों से भरे हुए संसार में रुलते हुए जीव ने आत्मज्ञानरूपी महान् रत्न को कहीं नहीं पाया। सारसमुच्चय शास्त्र है । अब तूने इस उत्तम सम्यग्दर्शन को पा लिया है। भगवान आत्मा शुद्ध आत्म पवित्र का वेदन होकर यह सम्यग्दर्शन तुझे मिला; अब कहते हैं, प्रमाद नहीं करना। इस रत्न को सँभालना । समझ में आया? विषयों के स्वाद का लोभी होकर इस अपूर्व तत्त्व को खो मत बैठना । विषयों के स्वाद में रहकर आत्मा के आनन्द का स्वाद खोना नहीं। भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप है, उसके आनन्द में रहना ।
देखो न! कल उसमें आया था न ? अनुभव करना । टोडरमलजी की चिट्ठी । स्वानुभव में रहना... कहो ! टोडरमल (जी) ने चिट्ठी में लिखा है, हाँ ! उन्हें खोटा सिद्ध करते हैं । हैं ? अरे ! भगवान, बापू ! इनने बात की है, वह वस्तु की है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी..... रहस्यपूर्ण चिट्ठी । ऐसी चिट्ठी यदि विदेश में होती.... उस दिन सुना था। लेख में आया था कि यदि ऐसी चिट्ठी विदेश में होती तो उसका मूल्य हजारों का होता। एक-एक चिट्ठी का ! उस समय दो आने में मिलती थी। (संवत्) १९९४ में पहली (बार) हाथ में आयी थी । (संवत्) १९९४‘अमरेली'। उसमें लेख आया था कि यह रहस्यपूर्ण चिट्ठी यदि अंग्रेजी में या ऐसे में होती तो इसकी कीमत हजारों की देते तो भी इसको कीमत नहीं होती - ऐसी अमूल्य है। इस हिन्दुस्तान में तो इसकी कीमत है नहीं । ऐसी यह चिट्ठी । इस चिट्ठी को मिथ्या कहनेवाले हैं। समझ में आया ? वहाँ तो लिखा है, व्यवहार देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा, वह समकित - बमकित नहीं हो सकता। लिखा है न ? भाई ! विमलचन्दजी ! तब यह कहे होता है, देव-शास्त्र-गुरु (की श्रद्धा) वही चौथे, पाँचवें और छठवें (गुणस्थान में) समकित है । वह नहीं; व्यवहार समकित (तो) समकित कहलाता ही नहीं । आत्मा के अनुभव की प्रतीति और दर्शन के बिना समकित नहीं हो सकता । आहा... हा...! व्यवहार देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा, नव तत्त्व के भेद की श्रद्धा, वह समकित है नहीं । यह रहस्यपूर्ण चिट्ठी में लिखा है। अब, ६७ (गाथा) इस ६६ (गाथा में) विरल, विरल की बात हुई ।