SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७६ गाथा-६६ कहते हैं कि तत्त्व की रुचि होती है। अध्यात्मज्ञान के विद्वान बहुत थोड़े मिलते हैं। जब तक ऐसे उपदेशक न मिले, तब तक श्रोताओं को आत्मज्ञान का लाभ होना कठिन है। मिलता नहीं, उपदेश ही मिलता नहीं। फिर (कहते हैं) कहीं आत्मज्ञानी पण्डित देखने में भी आते हैं तो आत्मा के हित की गाढ़ रुचि रखनेवाले श्रोताओं की कमी दिखती है। नवरंगभाई ! वे कहें, यह बात नहीं; हमें दूसरा बताओ, हमें दूसरा सुनाओ, हमें दूसरा सुनाओ। यह है, सुनना हो तो सुन । भगवान आत्मा पूर्णानन्द का नाथ है न! अरे...! तू जो निर्दोषदशा प्रगट करना चाहता है, उन समस्त दशाओं का पिण्ड ही स्वयं आत्मा है। समझ में आया? जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट करना चाहता है; उन सब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का पिण्ड आत्मा है। अब उसे छोड़कर तुझे किसे लेना है? समझ में आया? जिनके भीतर संसार के मोहजाल से कुछ उदासी होती है, वे ही आत्मीक तत्त्व की बातों को ध्यान से सुनते हैं, सुनकर धारण करते हैं, विचार करते हैं। जिनके भीतर गाढ़ रुचि होती है, वे ही निरन्तर आत्मीक तत्त्व का चिन्तवन करते हैं। आत्मध्यानी बहुत थोड़े हैं, इनमें भी निर्विकल्प समाधि पानेवाले, स्वानुभव करनेवाले दुर्लभ हैं। यह तो ध्यानी अर्थात् आत्म-सन्मुख के झुकाववाले थोड़े (हैं) ऐसा। और फिर निर्विकल्प अनुभव करनेवाले थोड़े हैं, ऐसा। नहीं तो ध्यानी हो गया, इसलिए एक ही है, परन्तु आत्मा का ऐसा झुकाव करनेवाले वे दुर्लभ हैं, फिर भी उनमें निर्विकल्प वेदन करनेवाले, स्वसंवेदन ज्ञानानुभूति – आत्मानुभूति करनेवाले विरल, विरल, विरल प्राणी है। कहो, इसमें ऐसा नहीं कहा कि इतने शास्त्र पढ़नेवाले दुर्लभ हैं, इतने जगत को समझानेवाले (दुर्लभ हैं) और दुनिया को समझानेवाले दुर्लभ हैं। उसे तो घमण्ड कहा। आहा...हा...! आत्मज्ञान अमूल्य पदार्थ है, मानव जन्म पाकर इसके लाभ का प्रयत्न करना जरूरी है। जिसने आत्मज्ञान की रुचि पायी उसने ही निर्वाण जाने का मार्ग पा लिया। भगवान आत्मा की दृष्टि हो गयी, आत्मा पवित्र आनन्द - यह पंथ मिला (तो) सीधी मोक्ष की सड़क चली गयी। उसे सीधा मोक्ष की तरफ पंथ गया। टेड़ा,
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy