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________________ ४७४ गाथा-६६ ऐसा कहा है। व्यवहार के ग्रन्थ में ऐसा आता है कि आठ कर्म के कारण होता है। इसमें ऐसा आता है कि कर्म के कारण राग होता है; इसलिए दोनों समान दोनों में है। ___कहते हैं – सूक्ष्म दृष्टि से नहीं पढ़ते। उसमें कहने का तात्पर्य क्या है - यह विचार नहीं करते। निश्चयनय से अपना ही आत्मा आराध्यदेव है - ऐसा दृढ़ निश्चय नहीं कर सकते। आराध्य अर्थात् सेवन करने योग्य तो भगवान यह आत्मा है। परमेश्वर वीतरागदेव, वे व्यवहार आराध्य है। समझ में आया? यह प्रभु - आत्मा, यह शुद्ध चिदानन्द की मूर्ति – यही सेवन करने योग्य, आराधन करने योग्य, आराधने के योग्य एक ही है। ऐसा दृढ़ निश्चय, अकेले व्यवहार के शास्त्र पढ़कर अथवा अध्यात्म शास्त्र भी पढ़कर सूक्ष्म दृष्टि से यह सार निकालना चाहिए - वह सार नहीं निकालते। कहो, समझ में आया? __ अनेक पण्डित आत्मज्ञान के बिना केवल विद्या के घमण्ड में... विमलचन्दजी! लिखनेवाले हैं, शीतलप्रसाद। लिखनेवाले लिखें, परन्तु उसका अर्थ उस प्रकार है या नहीं? वह पाठ में है या नहीं? और यहाँ दृष्टान्त भी देंगे - सुद परिचिदाणुभूदा – यह स्वयं कहेंगे। भगवान, समयसार में कहते हैं कि यह राग की कथा करके राग का वेदन करके यह तो अननत बार सुनी है। इससे तो स्वयं आधार है... परन्तु पर से, राग से भिन्न और अन्तर अपने पूर्ण शुद्ध स्वभाव से आत्मा अभिन्न है - यह बात इसने सुनी नहीं। समझ में आया?'धवल' ग्रन्थ – विमलचन्दजी ने नहीं पढ़े। इन्होंने बहुत पढ़े हैं । वे कहें – इसमें यह लिखा है; ये कहें कि यह तो निमित्तप्रधान कथन है। राजमलजी! मुमुक्षु - वे तो बड़े व्यक्ति हैं। उत्तर – बड़ा किसे कहना? धवल, जयधवल और महाधवल विमलचन्दजी ने बहुत पढ़ा है, बहुत पढ़ा है; फिर भी पहले आये तब अपने आप कहा कि वे तो निमित्त प्रधान कथन हैं, वस्तु तो यह है । समझ में आया? कथन व्यवहार प्रधान आया, इसलिए वस्तु वह हो गयी? कहा था न? भाई! पहले 'बड़ोदरा' से आये थे। क्या कहलाता है ? टोली घूमने निकली थी। पहले आये थे, तब कहा था, सत्य बात है। धवल में सब कथन हैं, वे निमित्त प्रधान कथन हैं। इन्होंने पढ़ा है और उन्होंने भी पढ़ा है। पढ़ने में, किस अपेक्षा से कथन है – यह जानना चाहिए या नहीं?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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