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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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आनन्दघनजी भी कहते हैं - अध्यात्मग्रन्थ मनन करो, उनके स्तवन में कहते हैं अध्यात्म के शास्त्र जो आत्मा को बतलानेवाले हैं, उनका मनन करके अनुभव करना - यह जगत् में मनुष्य में सार है परन्तु कहते हैं कि कितने ही विद्वान् इसमें फँसे हैं कि अध्यात्म की सूक्ष्म दृष्टि से (पढ़ते नहीं हैं) कोई अध्यात्म पढ़े परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से उसका अर्थ, भावार्थ क्या है, उसे नहीं समझते हैं।
मुमुक्षु – व्यवहार धर्म से हो....
उत्तर – हाँ, यह लिखा, समयसार में लिखा, लो! गोम्मटसार में ऐसा लिखा - ज्ञानावरणीय से ज्ञान रुकता है। समयसार में ऐसा लिखा कि कर्म के कारण विकार होता है, आत्मा के कारण नहीं। कर्म विपाकी.... कर्म का विपाक, वह राग, देखो! इसमें लिखा है। कर्म का विपाक, वह राग... परन्तु वह किस अपेक्षा से? भगवान आत्मा का पाक, वह राग नहीं। भगवान आत्मा....! उसे बताने को ऐसा कहा कि कर्म का पाक, वह राग। (तो कहते हैं) – देखो ! कर्म के कारण राग होता है या नहीं? देखो! अध्यात्म ग्रन्थ निकाले (और कहे) कर्म के कारण राग होता है, उसमें से निकाले कि ज्ञानावरणीय के कारण ज्ञान सकता है – अर्थात् व्यवहार ग्रन्थ में से भी यह निकाला और परमार्थ ग्रन्थ में से भी यह निकाला। आहा...हा...! समझ में आया? यह पुण्य-पाप अधिकार में लिखा है। लो! यह बड़ी चर्चा आयी है। 'सम्मतपडिणिबध्धं मिच्छतं जिणवरेहि परिकहियं (१५६ वीं गाथा है)।' है न? मिथ्यात्व के उदय से आत्मा मिथ्यात्व को पाता है, समकित का नाश करता है। अरे... ! वहाँ किस अपेक्षा से बात है? भाई! आत्मा का शुद्ध आनन्दसवभाव में विकारी परिणाम (हों), वह तो कर्म के संग से हुआ विकार है; वह आत्मा का स्वभाव नहीं है - यह बतलाने के लिए ऐसा कहा है। कर्म के कारण विकार हआ है - ऐसा वहाँ नहीं बताना है। विकार अपने स्वभाव से नहीं होता।
भगवान आत्मा, जिसकी गाँठ में तो अकेली वीतरागता पड़ी है। आहा...हा...! जिसकी गठरी में अकेले वीतरागता के रत्न पड़े हैं। उनमें कोई राग-द्वेष, पुण्य-पाप नहीं पड़े हैं। वह तो एक समय की दशा में कर्म के लक्ष्य से उत्पन्न किया कार्य है, वह आत्मा का नहीं है – ऐसा बतलाने के लिए अध्यात्म ग्रन्थ में (विकार) 'कर्म का कार्य है' -