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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
वहाँ उसका निवास नहीं होता। कहो इसमें समझ में आया ? यह... सामने बहुत पड़ा है परन्तु ऐसा निकला।
सागारू वि अणागारू कु वि जो अप्पाणि वसेइ ।
सोलहु पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरूएम भणेइ ॥ ६५ ॥
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यह तीन लोक के नाथ जिनवरदेव की वाणी में, यह ध्वनि इन्द्रों की उपस्थिति में आयी (कि) जो कोई गृहस्थाश्रम में या मुनिपने में हो; जिसने भगवान आत्मा की रुचि में, आत्मा में वास किया, वह गृहस्थ हो या मुनि हो, दोनों अल्प काल में मुक्ति पायेंगे । आहा...हा...! कहो, समझ में आया ? (लोग) चिल्लाहट मचाते हैं... अर... र... ! हे भगवान! गृहस्थाश्रम में आत्मा नहीं, ऐसा । आत्मानुभव नहीं अर्थात् कि आत्मा नहीं। अरे... ! तू क्या कहता है ? प्रभु ! आहा... हा... ! समझ में आया ?
गृहस्थाश्रम हो या मुनिपना हो; जहाँ आत्मा जिसे दृष्टि में अनुभव में बसा है, उसका वास राग में नहीं है, उसका वास आत्मा में है। उसके बदले यहाँ तो समकिती को और श्रावक को पूरा आत्मा में वास है - ऐसा सिद्ध करना है । अन्य कहते हैं, बिल्कुल नहीं.... तब कहते हैं (हैं) अकेला आत्मा में ही वास है, सुन ! तेरा कलेजा कायर हो गया, पामर! जिसे आत्मा की प्रभुता प्रगटी - ऐसी प्रभुता की जहाँ झंकार बजी, वहाँ उसका वास तो आत्मा में है। गृहस्थ है, स्त्री-पुत्र, परिवार है, इसलिए राग है (और) राग में बसा है ( - ऐसा ) जिनवर नहीं कहते हैं । समझ में आया ?
जहाँ जिसकी प्रीति जमी, वहीं वह स्थित है। यह अन्यत्र ठहरना उसे नहीं रुचता है – ऐसा कहते हैं । आहा... हा... ! इसमें समझ में आया ? जिणवर एम भणेइ – गुरु को आधार देना पड़ता है। योगीन्द्रदेव मुनि दिगम्बर सन्त, महालक्ष्मी के स्वामी हैं। नग्न दिगम्बर वनवासी, वे भगवान का आधार लेकर (कहते हैं) अरे...! भगवान ऐसा कहते हैं। यह मैं कहनेवाला कौन ? समझ में आया ? जिसके नाम से तू बात करता है, वे भगवान ऐसा कहते हैं । हैं? परमेश्वर... परमेश्वर... परमेश्वर... त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ वीतराग परमेश्वर पूरा हुआ, अन्दर पूर्ण मूर्ति प्रगट हुई, उन भगवान की वाणी में जिणवरु एम भणेइ ऐसा वे कहते हैं। गृहस्थाश्रम में आत्मा का ज्ञान, श्रद्धा और अनुभव हुआ, वह