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गाथा - ६४
यह तो कहते हैं, तेरा अवतार धन्य है, हाँ ! आहा... हा... ! जिसे परचीज तो नहीं परन्तु उसका जाननेवाला राग का जाननेवाला, लोकालोक का जाननेवाला, ऐसा चैतन्य सूर्यबिम्ब भगवान जिसे तूने पकड़ा... आहा... हा...! समझ में आया ? और विमलं 'मुणंत्ति' ऐसा। ऐसे आत्मा को लोकालोक के प्रकाशक की शक्तिवाला ऐसा भगवान आत्मा, उसे अनुभव करे, कहते हैं कि हम (मुनि) धन्य... धन्य... ! मुनियों को धन्य कहते हैं । आहा....हा... ! समझ में आया ? तुझे ऐसा धन्य कहते हैं, केवलज्ञान लेने की तेरी तैयारियाँ हो गयीं । केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी... धनतेरस... लो ! समझ में आया ?
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आत्मा का स्वरूप निश्चय से परम शुद्ध है..... (आज) तेरस है । पता है न ! ज्ञान उसका मुख्य असाधारण लक्षण है। भगवान आत्मा शुद्ध है परन्तु ज्ञान उसका असाधारण लक्षण है। असाधारण अर्थात् दूसरे गुण ऐसे कोई होते नहीं । ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि एक ही समय में सर्व लोक के छह द्रव्यों को उनके गुण-पर्यायों सहित तथा अलोक को एक साथ क्रमरहित ज्यों का त्यों जान सकता है । ओहो...हो... ! केवलज्ञान एक समय में तीन काल-तीन लोक व्यवस्थित जैसा पड़ा है, वैसा जानता है I अभी इसका विवाद है । केवलज्ञान ऐसा जाने... केवलज्ञानी, वहाँ निमित्त आवे तब ऐसा हो तब भगवान अनियत को जाने । अरे... प्रभु ! तू क्या कहता है यह ? भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर जिन्हें एक सेकेण्ड के असंख्य भाग में तीन काल-तीन लोक जाग उठे... जिस जगह-जिस समय भूत में, भविष्य में होनेवाली उस जगह वह होगा, वहाँ निमित्त कौन है
- सब भगवान के ज्ञान में नियत / निश्चित हो गया है । केवलज्ञान किसे कहते हैं ? यह तो (कहे) केवलज्ञानी पहले नियत को नियत जानते हैं, और अनियत जैसा निमित्त आयेगा, वहाँ क्या पर्याय होगी, उस अनियत को अनियत जानते हैं... अरे...! भगवान तूने सर्वज्ञ को माना ही नहीं । आहा... हा...! लोकालोक का प्रकाशक उसमें कौन सी पर्याय बाकी रह गयी कि वह नहीं होगी, यहाँ होगी तब जानेंगे ? यहाँ केवलज्ञान हुआ और तीन काल-तीन लोक ऐसा एक साथ जाना है। समझ में आया ? ऐसे आत्मा का निर्मल अनुभव करना, ऐसे आत्माओं को, मुनि स्वयं कहते हैं कि प्रमोद और सम्मत्ति, अनुमति देते हुए धन्य कहते हैं । विशेष कहेंगे...... ( श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव !)