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गाथा - ६२
थैलियाँ रत्नों की भरी हों, कहते हैं। यह क्या है ? यह तो रत्न से भरा भगवान चैतन्य रत्नाकर है । यह निर्भय से, अपने वीर्य से पूर्णानन्द को प्राप्त करेगा, भगवान को पूछे तो भगवान ऐसा कहते हैं। आहा... हा... ! समझ में आया ? पूर्ण को केवलज्ञान को पायेगा, भगवान को पूछा कौन है कुन्दकुन्दाचार्यदेव ? वहाँ पूछा, इतने चार हाथ के आचार्य वहाँ गये, चक्रवर्ती ने पूछा, चार हाथ का शरीर... वहाँ पाँच सौ धनुष की देह । वहाँ नीचे बैठे, नीचे बैठ गये। हाथ में उठाकर (पूछता है) महाराज ! यह कौन है ? भरतक्षेत्र के धर्म धुरन्धर आचार्य हैं। भगवान के मुख से बात निकली। रतनलालजी ! कुन्दकुन्दाचार्य भगवान के पास गये थे। अभी विराजमान हैं वहाँ गये थे । आठ दिन रहे थे, भगवान को चक्रवर्ती ने पूछा – छोटा शरीर इसलिए ऐसे नन्हें से लगें, यह टिड्डी जैसा मनुष्य होता है न? इतना छोटा नाक और यह सब .... पाँच सौ धनुष की देह और यह पाँच सौ का भाग चार हाथ और वे दो हजार (हाथ) कौन होगा ? नाक, कान, हाथ, पैर.... भरतक्षेत्र के धर्म - धुरन्धर आचार्य हैं। पहले नम्बर के आचार्य हैं, आहा... हा...! भगवान के श्रीमुख से वाणी दिव्यध्वनि द्वारा (निकली) हाँ ! उन्हें ऐसी कुछ वाणी नहीं निकलती, दिव्यध्वनि द्वारा कहा - • यह भरत क्षेत्र के महा आचार्य हैं। आहा... हा...! इनका केवलज्ञान निश्चित हो गया है। समझ में आया ? यह तो पंचम काल में अवतार है, इसलिए स्वर्ग में गये हैं । वहाँ से निकलकर मनुष्य होकर केवल (ज्ञान) लेकर मोक्ष जानेवाले हैं। वे कुन्दकुन्दाचार्यदेव दिगम्बर सन्त (केवलज्ञान लेंगे ) । भगवान की वाणी में निकला कि यह आचार्य है। आहा... हा...! समझ में आया ? उस वाणी का योग उनके पास आया... केवलज्ञानी के पास इच्छा बिना वाणी का योग... देखो तो सही ! आहा...हा... ! ऐसे यह कहते हैं, आत्मा का ध्यान करने से वीर्य प्रस्फुटित होकर अनन्त स्वरूप की रचना करने की सामर्थ्य और उत्साह वहाँ उसे बढ़ता है, केवलज्ञान लेगा ।
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परभाव का त्याग संसारत्याग का कारण है
जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति । केवल-णाण-सरूव ( लहि ? ) ते संसारूमुचंति ॥ ६३ ॥