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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) ४३५ -पचास लाख, दस लाख, करोड़, दिन की पाँच-पाँच हजार, दस हजार की आमदनी (होती है)। हैं? मुमुक्षु – यही सुख की धारा है। उत्तर – यही सुख की धारा है, मूढ़ को। आहा...हा...! आहा...हा...! मुमुक्षु - उल्लसित वीर्य में होता क्या होगा? उत्तर – हैं? उल्लसित वीर्य अर्थात् जो वीर्य शक्तिरूप है, उसका अनुभव होने पर व्यक्त के वीर्य में जागृति होती है कि यह वीर्य उछला, वह केवलज्ञान को लेगा। उसका फल-यह सर्वज्ञपद को लेनेवाला मेरा वीर्य है। मैं आत्मा सर्वज्ञपद को लेनेवाला हूँ। सिद्धपद को अल्पकाल में शीघ्रता से लेनेवाला हूँ – ऐसा वह वीर्य जगता है। समझ में आया? ऐसा नहीं होता कि अरे...रे...! क्या होगा? कितने भव करने पड़ेंगे? कहाँ होगा? बीच में पड़ेगा? अरे...! चल... चल...! भगवान वह द्रव्यस्वरूप कभी पड़ता होगा? द्रव्य स्वरूप पड़ जाये तो अद्रव्य हो जायेगा? मुमुक्षु - अभी तो वीर्य की बात है न? उत्तर – नहीं, यह द्रव्य की बात है। वह द्रव्य स्वयं जो वीर्य का पिण्ड है, वह कभी कहीं अद्रव्य होता है ? ऐसा जहाँ प्रतीति और अनुभव में वीर्य आया कि यह द्रव्य ऐसा है, उसका वीर्य जगा, वह फिर गिरेगा? समझ में आया? वह क्षयोपशम होवे तो क्षायिक ले और क्षायिक होवे तो शुक्लध्यान ले और शुक्लध्यान होवे तो केवलज्ञान ले। 'झपट मारे तलवार' – ऐसा कहीं आता है। कषाय की झपट मारे – ऐसा सब कहीं सज्झाय में आता है। कहो! जिससे प्रत्येक कार्य करने के लिये अन्तरंग में उत्साह और पुरुषार्थ बढ़ जाता है। देखो! ठीक लिखा है यहाँ । आत्मा के शुद्ध भगवान स्वभाव को, आत्मा के शुद्ध महिमावन्त भगवान स्वभाव को अनुभव करने पर वीर्य में.... समझ में आया? अनेक प्रकार का उत्साह, पुरुषार्थ बढ़ने से अन्दर क्या काम नहीं करे? ज्ञान की वृद्धि, श्रद्धा की शुद्धता, आनन्द की वृद्धि, चारित्र की स्थिरता, स्वच्छता बढ़ने पर प्रभुता की उग्रता (होती
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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