________________
४३४
गाथा-६२
आया? प्रत्यक्ष प्रतीति, ज्ञान, आनन्द, शान्ति, स्वच्छता, विभूता आदि अनेक शक्तियों की पर्याय में प्रगटता अनुभव करने से होती है। समझ में आया ? देखो!
दूसरा फल यह है कि अन्तराय कर्म का क्षयोपशम बढ़ने से आत्मबल बढ़ता है.... देखो! वीर्य की रचना... वीर्य-आत्मबल भगवान आत्मा के सन्मुख ढला और अनुभव में वीर्य झुका – इससे उस वीर्य में ऐसी स्वरूप रचना की कि वीर्य में उल्लास आया, वीर्य में उल्लास आया कि मैं अब काम पूरा कर सकूँगा। समझ में आया? भगवान आत्मा स्वयं को निर्विकल्प दृष्टि और ज्ञान द्वारा अनुभव करने पर एक तो मुख्यरूप से आनन्द का वेदन हुआ और वीर्य की उत्साहता, वीर्य का उत्साह, उत्साह, प्रसन्नता, प्रसन्नता, प्रमोदता (आयी), वह वीर्य उछला, पूर्ण केवल (दशा के) कारण ऐसा उत्साहित वीर्य उसे जगे, वह उसका फल है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? ए... मांगीरामजी! यह किसकी बात चलती है ? मोक्ष की? आत्मा की। मोक्ष तो उसका फल है। आहा...हा...!
यह खेत कोई कच्चा नहीं कि जिसके खेत में साधारण घास-फूस पके, यह तो असंख्य प्रदेशी अनन्त गुण का खेत, उसका अनुभव करने पर क्या फल नहीं होगा? कहते हैं। क्या फल नहीं होगा? आहा...हा...! आचार्य देखो न ! उछला है न वीर्य ! उल्लसित, उल्लसित वीर्य ! उल्लसित वीर्यवान वह आत्मा के मोक्ष के मार्ग का अधिकारी है। समझ में आया? पामर वीर्य का (धारक) वह आत्मा के मोक्षमार्ग का अधिकारी नहीं है। समझ में आया?
अन्तराय कर्म का क्षयोपशम ( उघाड़) बढ़ने से आत्मबल बढ़ता है.... देखो! इसमें अन्तराय कर्म डाला है। यहाँ तो आत्मा में जो अनन्त वीर्य-बल है, उसका यहाँ अनुभव होने पर वीर्य की व्यक्तता इतनी जगती है कि उस वीर्य में उल्लसितता (होती है कि) इस वीर्य से तो मैं केवलज्ञान लेनेवाला हूँ – ऐसा उल्लसित होता है। समझ में आया? अरे... ! ऐसा वह कैसा होगा? ए...ई... ! किसकी बात होगी यह ? यह दुनिया में भी कहते हैं कि 'धन रले तो ढगला थाय, पंड रले तो पेट भराय' ऐसा कहते हैं न? बातें करते हैं, हाँ! पंड रले तो कितना हो? पेट मुश्किल से भरे। जहाँ धन पाँच