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गाथा-६०
नहीं है। विकल्प से तो दूर है, आत्मा से बाहर है; विकल्प तो आत्मा से बाहर है, वह कहीं अन्दर में नहीं है, फिर वह साधन-फाधन (कहाँ से आया)?
मुमुक्षु - गुरु दिखावे न?
उत्तर – दिखावें गुरु, आत्मा स्वयं गुरु अर्थात् बड़ा बैठा है (वह) इसे दिखाता है। यह तो आ गया नहीं? समाधिशतक में आ गया। पूज्यपादस्वामी के इष्टोपदेश में आ गया है। परमात्मप्रकाश में आ गया है, बहुत जगह आया है। जो जिसे समझावे, वह उसका गुरु । हे आत्मा! तू आनन्द है, तू ज्ञान है, तू पूर्ण है, तू शुद्ध है, तू अनादि से भटका है – ऐसा जो समझाकर अन्दर स्थिर हो, वह क्रिया करे, वह उसका गुरु।
मुमुक्षु - अभेद हुआ, उसमें गुरु सिद्ध किस प्रकार हुए?
उत्तर – कहते हैं, वह तो अभेद हो गया। उसमें गुरु सिद्ध कहाँ हुआ? एक हो गया, वह एक हुआ उसमें ही गुरु रहा। आत्मा गुरु, उसकी पर्याय – प्रजा उसका शिष्य.... बहुत वर्ष पहले, 'उत्तराध्ययन' का पहला अध्ययन है न? उसमें से कहते थे। पहले उसमें से निकालते थे। उत्तराध्ययन का पहला अध्ययन 'विनय अध्ययन' है। शिष्य है, वह विनय करता है। पर्याय, आत्मा की विनय करती है। आत्मा गुरु है, शिष्य विनय करता है। भगवान का मार्ग विनयमार्ग है, कहा। ए...ई... ! आता है न? उत्तराध्ययन का पहला (अध्ययन) 'संयोगावित्तमुक्त' आता है। उत्तराध्ययन का पहला (अध्ययन) शिष्य विनय करे, विनय । आत्मा की पर्याय अन्दर द्रव्य को बहुमान देती है, उस पर नजर करती है, वह आत्मा गुरु और पर्याय शिष्य है। लो, दो हो गये। ऐसे तो नामभेद से भेद है, लक्षणभेद से भेद है, भावभेद से भेद है, प्रदेशभेद से अभेद है।
भगवान आत्मा.... दो धर्म गिने हैं न? एक पर्याय धर्म और एक द्रव्यधर्म, दो धर्म गिने हैं। द्रव्यधर्म कायमी - असली तत्त्व है; पर्यायधर्म क्षणिक है क्योंकि जितना कार्य होता है, वह पर्याय से होता है, पर्याय से होता है, गुण-द्रव्य से नहीं होता परन्तु जिसका आश्रय लेते हैं, वह पर्याय नहीं; आश्रय लेते हैं, उस द्रव्य का। आधार उसका, इसलिए वह गुरु हुआ।
मुमुक्षु – गुरु के आधार बिना पर्याय होती है?