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गाथा - ६०
ध्यान करे तो अल्प काल में निर्वाण और केवलज्ञान को प्राप्त करे- ऐसा उसे अभ्यन्तर मोक्षमार्ग रहा है ऐसा कहते हैं । वह बाहर ढूँढ़ने जाना पड़े- ऐसा नहीं है।
मुमुक्षु - दुःखी होना रुचता है।
उत्तर – रुचता है; भान नहीं है इसलिए क्या करे ? विष्टा का कीड़ा विष्टा में पड़े समझ में आया ? कीड़े को विष्टा में से बाहर निकाले तो विष्टा में जाये - ऐसा है न उसे ? चीज का पता नहीं । कसाई के बकरे को बाहर निकालो तो बकरा वापस वहाँ घर में जाता है । अनादि की टेव पड़ी है न ?
भगवान आत्मा... बापू! तेरी कीर्ति तूने सुनी नहीं, तेरी कीर्ति की व्याख्या वीतराग की वाणी में पूरी नहीं आती । सर्वज्ञ परमेश्वर जो सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान की सम्पत्तिवाले कहलाते हैं और अनन्त बल वाले कहलाते हैं, उनकी वाणी में भी तेरी (बात पूरी नहीं आती)। उनके ज्ञान में बात आ गयी। उनके ज्ञान में जानते हैं कि ओहो...हो... ! वाणी में, जाना उससे अनन्तवें भाग, अनन्तवे भाग वाणी में आता है। ऐसे आत्मा की क्या प्रतिष्ठा ! ऐसे आत्मा का अन्दर ध्यान करना – ऐसा कहते हैं। वह फिर बारम्बार जन्म धारण नहीं करता। वस्तु में जन्म नहीं, उस वस्तु का ध्यान करने से उसे जन्म नहीं मिलेगा, फिर से माता का दूध नहीं पियेगा ।
आत्मा, शरीररहित अमूर्तिक है । आत्मा इन्द्रियों द्वारा ज्ञात नहीं होता मन भी केवल विचार कर सकता है.... मन विचार कर सकता है। ग्रहण नहीं कर सकता । आत्मा का ग्रहण आत्मा द्वारा ही होता है। पहले शुरुआत... आत्मा का ग्रहण आम द्वारा ही होता है। उसके ग्रहण का बाह्य साधन ध्यान का अभ्यास है। लो, ठीक ! बहुत तो ध्यान का अभ्यास बाह्य साधन होगा। एकाग्र होने का अभ्यास । बाह्य साधन का अर्थ - पर्याय को जरा एकाग्र करते हैं न । कहो, समझ में आया ? आहा... हा...!
वीतरागभाव की शान्तरस से भरी हुई गंगा नदी बहने लगी.... अन्दर में.... केवल एक अपने ही शुद्ध अशरीरी आत्मा को शरीर प्रमाण विराजित अन्तर में सूक्ष्म भेदविज्ञान की दृष्टि से देखने का उद्यम करना । शान्त... शान्त... विकल्परहित, रागरहित, निर्विकल्पतत्त्व को देखने को निर्मल गंगा बहावे... निर्मल परिणति को प्रगट