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गाथा - ५८
चैतन्य-आकाश को वे चीजें, असंग को संग करती नहीं, वे असंग का संग करती नहीं । आहा... हा...! स्वयं असंग चीज, पर का संग नहीं करता और संगवाली चीज असंग को स्पर्श नहीं करती – ऐसा आकाश समान भगवान आत्मा, असंग और निर्लेप - पर से भिन्न है, लो ! बड़ी उपमा दे दी।
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'सो परु बंभु लहु पावइ' अनेक संग के प्रसंग में रहा होने पर भी, स्वभाव (तो) संग-प्रसंग रहित है, असंग है। समझ में आया? ऐसी दृष्टि करनेवाले को परमब्रह्म परमात्मा प्राप्त होता है। समझ में आया ? यह तो अकेला मक्खन है। योगसार है न ? आहा... हा...!
मुमुक्षु - दृष्टान्त ऐसा है न कि प्रत्यक्ष तत्काल अनुभव हो परन्तु यह करता नहीं है। उत्तर - यहाँ भी कितनी हौंश की है ? ऐसा चुपड़ना और ऐसा फूलाफाला दिखे वहाँ, भाईयों को और लड़कों को हौंश दिखावे । मानो हमने कितने काम किये ! कितने करते हैं ? देखो ! तुम्हें ऐसा करना, तब हमने बड़प्पन लिया है और तुम मुझे बड़प्पन देते हो.... बाहर में भी ऐसे फूले-फूले.... देखो, यह सब काम करते हैं। देखो, ऐसा करते हैं, हाँ! हम अकेले ऐसे नहीं निभते, तुम्हारे आश्रय से निभते नहीं। हम अपने उससे निभते हैं... ऐसा है, ऐसा है। धूल-धाणी और वाह पानी.... ऐ... मोहनभाई ! इसमें जैसे हौंश है... ऐसा यहाँ कहना है। ऐसी अपनी हौंश दूसरे को बताकर स्वयं अधिक हूँ - ऐसा जो कहना चाहता है, ऐसा यहाँ रागादि से मेरी हौंश बताना ? ज्ञानादिक से मैं अधिक हूँ, ज्ञानादिक से मैं अधिक हूँ, राग से अधिक हूँ नहीं । आहा... हा...! समझ में आया ?
परमब्रह्म स्वरूप का अनुभव करता है.... केवलु पयासु वह केवलज्ञान का प्रकाश करता है । आकाश जैसा भगवान आत्मा.... अरे... दृष्टान्त भी कैसे! सिद्धान्त को सिद्ध करें वैसे ! आहा... हा... ! समझ में आया ? कहो, समझ में आया ?
जैसे आकाश में एक ही क्षेत्र में .... एक ही क्षेत्र में आत्मा आकाश है, वहाँ एक क्षेत्र में धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाश, काल दूसरे जीव, जड़, परमाणु, पुद्गल, नारकी, देव, तीव्रतम नारकी के दुःख, बाहर की अनुकूलता का पार नहीं - ऐसे स्वर्ग के सुख, ये आकाश को छुएँ या आ मिलें, (ऐसा कुछ नहीं होता। इसी प्रकार भगवान सर्व व्यापक