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योगसार प्रवचन (भाग-१)
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मुमुक्षु - आकाश में कुछ विक्रिया होना सम्भव नहीं है।
उत्तर – परन्तु किसकी विक्रिया? आकाश में होती है? वैसे ही आत्मद्रव्य में नहीं। पर्याय भी एक समय की कृत्रिम अवस्था है, वह कहाँ त्रिकाली तत्त्व है? वह तो आस्रवतत्त्व है, वह कहीं आत्मद्रव्य नहीं है।
मुमुक्षु – इसकी है।
उत्तर – नहीं, नहीं.... इसकी है ही नहीं – ऐसा है यह। विकृत अवस्था, वह आस्रवतत्त्व है; आत्मतत्त्व नहीं। कहो, समझ में आया? पर्याय भले वह, परन्तु पर्याय अर्थात् आस्रवतत्त्व। भगवान ज्ञायकतत्त्व.... आकाश को और पर को कुछ सम्बन्ध नहीं है, अग्नि का भवका आकाश में हो, हड.... हड... हड... हड... हड... (होते) हों, आकाश को कछ सम्बन्ध है? अग्नि का और उसका कछ सम्बन्ध है? किसको? आकाश को। पूरा बड़ा पर्वत जले, लगातार ऐसी श्रेणी, हाँ! जलते हों। आकाश को कुछ सम्बन्ध नहीं है। भगवान-आकाश, अरूपी आकाश के समान असंख्य प्रदेशी निर्लेप, असंग है।
यह शरीर बड़ा फोड़ा पूरा है। लो यह.... शरीर स्वयं ही फोड़ा है। इस फोड़े में चाहे जैसा भभका हो तो आत्मा को कुछ स्पर्श करे – ऐसा नहीं है, ऐसा कहते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? कहते हैं न? एक अंगुल में छियानवें रोग.... कन्दकन्दाचार्य महाराज कहते हैं न? शरीर के एक अंगुल में छियानवें रोग.... परन्तु वे रोग शरीर में हैं, आत्मा को छूते ही नहीं न! आकाश पड़ा है, वहाँ भड़का हो, वह भड़का आकाश को छूता ही नहीं न! आहा...हा...! समझ में आया? ऐसा चैतन्य ज्योत भड़का आकाश के समान अरूपी असंग, उसे यह देहादिक का शरीर आदि.... शरीर आदि (शब्द से) वाणी, मन, सब अपने आत्मा से पर जानता है, वह पर है, पर है। मुझे और उसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
छियानवें-छियानवें हजार स्त्रियों के वृन्द में पड़ा हो परन्तु आकाश (के साथ) पर का एकपना नहीं होता। वैसे ही आत्मा को-सम्यग्ज्ञानी को – इसे और मुझे कुछ (लेना-देना नहीं)। पर, वह सब अलग, निराले रहे हैं, शामिल कभी हुए ही नहीं। छियानवें हजार स्त्रियों के वृन्द में पड़ा दिखे, हीरा-माणिक के ऐसे बड़े हार पहने हो....